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________________ मानुषोत्तरपवंत, आर्य-अनार्यदेश, १६ अन्तरद्वीप आदि का वर्णन ४६७ के चारों तरफ मनुष्यलोक से घिरा हुआ सुवर्णमय मानुषोत्तर पर्वत है, वह पर्वत १७२१ योजन ऊंचा, ४३० योजन और एक कोस नीचे जमीन में, १०२२ योजन मूल में विस्तृत, ७२३ योजन मध्य में और ४२४ योजन ऊपर के भाग में विस्तृत है । इस पर्वत के आगे के क्ष ेत्र में मनुष्य कदापि जन्म लेता या मरता नहीं है । यदि कोई लब्धिधारक चारण या विद्याधर मनुष्य उस पर्वत को लांघ कर आगे गया हो तो भी वह वहाँ मरता नहीं है, इस कारण से इसे मानुषोत्तर पर्वत कहते हैं । उस पर्वत से आगे बादर अग्निकाय, मेघ, विजली, नदी, काल, परिवेष आदि नही है। मनुष्यक्षेत्र के अन्तर्गत पैंतीस क्षेत्रों में तथा अंतरद्वीप में जन्म से मनुष्य होते हैं । संहरणविद्या और ऋद्धियोग से सभी मनुष्य ढाईद्वीप में मेरु के शिखर पर और दोनों समुद्रों में जाते हैं। ये भरतक्षेत्र के हैं, ये हैमवतक्षेत्र के हैं, ये जम्बूद्वीप के हैं, ये लवणसमुद्र के हैं और ये अन्तरद्वीप के मनुष्य हैं, इस प्रकार की के विभाग से मनुष्यों की होती है । आर्य और म्लेच्छ दो प्रकार के मनुष्य हैं। में उत्पन्न होते हैं । देश विशिष्ट नगर से पहिचाना जाता है, वह इस प्रकार - पहिचान द्वीपों और समुद्रों आर्य साढ़े पच्चीस देश (१) मगधदेश राजगृहनगर से, (२) अंगदेश चंपानगरी से (३) बंगदेश तात्रलिप्ति से, (४) कलिंग कांचनपुर से (.) काशीदेश वाराणसी नगरी से (६) कोशल साकेतनगर से (७) कुरुदेश हस्तिनापुर से (८) कुशातंदेश शौर्यपुर से (६) पंचाल देश कांपिल्यपुर से (१०) जंगलदेश अहिच्छत्रा से, (११) सौराष्ट्र द्वारकानगरी से (१२) विदेह मिथिला से (१३) वन्तदेश कौशाम्बी से (१४ ) शांडिल्य - देश नन्दीपुर से (१५) मलय भद्दिलपुर से (१६) मत्स्यदेश विराट्नगर से से (१८) दशार्णदेश मृत्तिकावती नगरी से (१६) चेदी शुक्तिमती नगरी से (२१) शूरसेन मथुरा से (२२) भंगा पापा से (२३) वर्ता माषपुरी से (२५) लाटदेश कोटिवर्ष से और (२६) कैकेय का आधा देश श्वेताम्बिका नगरी यह साढ़े पच्चीस देश आर्यदेश कहलाते हैं, जहाँ जिनेश्वरदेव, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव का जन्म होता है । ( १७ ) अच्छदेश वरुणानगरी (२०) सिंघुसोवीर वीतभय से (२४) कुणाल श्रावस्ती से पहिचाना जाता है । शक, यवन आदि देश अनार्य देश कहलाते हैं । वे इस प्रकार -- शक, यवन, शबर, कायमुरुड, उड्ड, गोण, पकवण, आख्यानक, हूण, रोमश, पारस, खन, कौशिक, दुम्बलि, लकुश, बुक्कस, बान्ध्र, पुलिन्द्र क्रौंच, भ्रमर, रुचि, कापोत, चीन चचूक, मालव, द्रविड, कुलत्थ, कैकेय, किरात, हयमुख, स्वरमुख, गजमुख, तुरगमुख, मेंढमुख, हयकणं, गजकर्ण, इत्यादि और अनेक अनार्य मनुष्य हैं, जो पापकर्मी, प्रचंड-स्वभावी, निर्दय, पश्चात्तापरहित हैं, धर्म शब्द तो उन्होंने स्वप्न में भी नहीं सुना । इसके अतिरिक्त अन्तरद्वीप में उत्पन्न हुए यौगलिक मनुष्यों भी अनायें समझने चाहिए । ५६ अंतरद्वीप इस प्रकार है - हिमवान पर्वत के अगले और पिछले भाग में ईशान आदि चार विदिशाओं में लवणसमुद्र के अंदर ईशानकोण में तीनसो योजन अवगाहन करके तीनसी योजन लम्बाचौड़ा एक ऊरू नाम का प्रथम अन्तरद्वीप हैं; वहाँ एकोरूक पुरुषों का निवास है । द्वीपों के नाम अनुसार पुरुषों के नाम हैं। पुरुष तो सभी अंगोपांगों से सुन्दर होते है, मगर एक उरूक वाला स्थान नहीं होता, इसी प्रकार अन्य के लिये भी समझना। अग्निकोण में तीनसी योजन लवणसमुद्र के अन्दर जाने के बाद तीनसौ योजन लम्बाई चौड़ाई वाला और आभाषिक पुरुषों के रहने का स्थान प्रथम आभाषिक नाम का अन्तरद्वीप है। तथा नैर्ऋ त्य कोण में उसी तरह लवणसमुद्र में जाने के बाद तीनसो ६३
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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