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________________ मनःशुद्धि एवं प्रबल रागषादि से मन को रक्षा के उपाय अर्थात् जीव जिस मेश्या में मरता है, उसी लेश्यावाली गति में पैदा होता है। भगवद्गीता आदि बन्य धर्मग्रन्थों में भी कहा है-'बन्ते भरता या मतिः, सा गतिगाम्' अर्थात् अन्तिम समय में बसी मति होती है, तदनुसार ही मनुष्यों की गति होती है।' यहाँ जो 'मति' शब्द का प्रयोग किया गया है, बह चेतनास्प है; तब फिर 'जैसी मति वैसी गति' यह बात इसके साथ कैसे संगत हो सकती हैं ? हो. मति का अर्थ बशुद्धतम बादि परिणाम किया जाय, तब तो परमर्षि का यह कथन युक्तिसंगत हो सकता है। छह लेश्याओं में से कृष्णलेण्यावाला जीव नरकगति में, नीललेश्यावाला जीव स्थावरयोनि में, कपोत मेश्यावाला जीव तियंचति में, पीतलेल्या वाला जीव मनुष्यगति में, पद्मलेण्या वाला देवगति में बोर शुक्ललेश्या बाला जी मोक्ष में जाता है । अधिक क्या कहें, अशुद्धलेश्याओं को छोड़ कर शुद्ध लेश्याबों को स्वीकार करने से ही मन की उत्तरोत्तर शुद्धि हो सकती हैं । इसी प्रकार मन.शुद्धि के कुछ छुटपुट उपाय बताते हैं मनःशुद्ध यव कर्तव्यो राग-वेष-विमिजयः । कालुष्यं येन हित्वात्मा स्वस्व तिष्ठते ॥४॥ अर्थ-आत्मस्वरूप भावमन को शुद्धि के लिए प्रीति-अप्रीतिस्वरूप राग-रष का निरोष करना चाहिए। अगर रागढष उज्य में आ जाएं तो उन्हें निष्फल कर देने चाहिए। ऐसा करने से आत्मा मलिनता (कालुष्य) का त्याग करके अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है। रागद्वेष की दुर्जयता तीन श्लोकों द्वारा समझाते हैं आत्मायत्तमपि स्वान्तं, कुर्वतामत्रयोगिनाम् । रागादिभिः समाक्रम्य, परायत्तं विधीयते ॥४६॥ रक्यमाणमपि स्वान्त, समादाय मनाग मिषम् । पिशाचा इव रागाचारलपान्त मुहुर्मुहुः ॥४७॥ रागादितिमिरध्वस्तज्ञानेन मनसा जनः । अन्धेनाऽन्ध इवाकृष्टः पात्यते नरकावनौ ॥४८॥ अर्थ-योगियों के समान अपने मन को वशीभूत करने का प्रयत्न करते-करते बीच में ही राग-ष-मोह मादि विकार हमला करके क्षणभर में मूढ़ और वेषी बना कर रागादि के अधीन कर देते हैं। 'यम-नियम आदि से भावमन की विकारों से रक्षा करते हुए भी योगियों के मन को रागादि पिशाच कोई न कोई प्रमावरूपी बहाना कर बार-बार छलते रहते हैं। जैसे मंत्रतंत्रारिद्वारा पिशाचों से रक्षा करने पर भी मौका पाकर छल से वे साधक को पराधीन कर देते हैं, वैसे ही रागादि पिशाच योगियों के मन को छलते रहते हैं।' _ 'रागादिरूपी अन्धकार से जिसके सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन नष्ट हो जाते हैं, उस योगी का मन उसी तरह खींच कर नरफ के कुंए में गिरा देता है, जिस तरह एक अन्धा दूसरे अन्वे को खींच कर कुंए में गिरा देता है।'
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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