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________________ मन की शुद्धि का महत्त्व और लेश्या का वर्णन तपस्विनो मनःशुद्धि विनाभूतस्य सर्वथा । ध्यानं खलु मुधा चक्षुर्विकलस्येव दर्पणः ॥४३॥ अर्थ अंधे के लिए जैसे वर्पण व्यर्थ है, उसी प्रकार मनःशुद्धि के बिना कोरे तपस्वी का ध्यान करना सर्वथा निरर्थक है। भावार्थ यद्यपि मनःशुद्धि के बिना तप और ध्यान के बल से नी वेयक तक चला जाता है। ऐसा सुना जाता है। परन्तु वह कथन प्रायिक समझना चाहिए। और अवयकप्राप्ति तो संसारफल है, जिसे फल की गणना में नहीं माना गया है, जिसका फल मोक्ष हो, उसे ही यहाँ फल माना गया है। इसलिए मनःशुद्धि के बिना कोरे ध्यान से मोक्षफल की अपेक्षा रखना व्यर्थ है। यद्यपि दर्पण रूप देखने का साधन है । परन्तु जिसके आँखें नहीं हैं, उसके लिए दर्पण बेकार है ; इसी तरह मनःशुद्धि के बिना ध्यान व्यर्थ है। अब उपसंहार करते हैं-- तदवश्यं मनःशुद्धिः कर्तव्या सिद्धिमिच्छता। तपः-श्रुत-यमप्रायः किमन्यः कायदण्डनः?॥४४॥ अर्थ-- अतः सिद्धि (मुक्ति) चाहने वाले साधक को मन को शुद्धि अवश्य करनी चाहिए। अनशनरूप तप, श्रुत (शास्त्र) का स्वाध्याय, महाव्रतरूप यम और भी दूसरे नियम रूप अनुष्ठान करने से सिवाय कायक्लेश (शरीर को दण्ड देने) के और क्या लाम मिलेगा? ___व्याख्या-यहां यह बात भी जोड़नी चाहिए कि 'मन की शुद्धि कैसे होती है ? लेण्या की विशुद्धि से मन की निर्मलता होती है । इसलिए प्रसंगवश यह बताते हैं कि लेश्याएं कौन-कौन-सी हैं ? लेण्याबों का वर्णन लेश्याएं छह है- कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल । कर्मवर्गणा के अनुरूप वर्णद्रव्य की सहायता से आत्मा में तदनुरूप परिणामों का आना लेश्या है। यद्यपि बात्मा तो स्फटिक के समान निर्मल-स्वच्छ है । किन्तु कृष्ण आदि लेश्याद्रव्य को ले कर ही आत्मा में लेश्या-शब्द का व्यवहार होता है । काले रंग के अशुभपुद्गलों के सन्निपात से आत्मा के परिणाम अशुद्धतम होते हैं । इस कारण वह आत्मा कृष्णलेण्याधिकारी माना जाता है। नीले रंग के द्रव्यों के सत्रिकर्ष से आत्मा के परिणाम अशुद्धतर होते हैं, इसलिए वह आत्मा नीललेश्याधिकारी माना जाता है। कापोतवणं वाले द्रव्य के सन्निधान से आत्मा के परिणाम अशुद्ध होते हैं, इस कारण वह आत्मा कापोतलेण्यावान् कहलाता है। पीतवर्ण वाले द्रव्य के सन्निधान से आत्मा के परिणाम तदनुरूप शुद्ध होते हैं, इससे बात्मा तेजोलेश्या बाला कहलाता है । पद्मवर्ण वाले द्रव्यों के सन्निकट होने से बात्मा के परिणाम तदनुरूप शुद्धतर होते हैं, इसलिए वह आत्मा पद्मलेश्यायुक्त माना जाता है । और शुक्लवर्ण वाले द्रव्यों के सानिध्य से आत्मा के परिणाम शुद्धतम (बिलकुल शुद्ध) होते हैं, इसलिए वह आत्मा शुक्नलेश्यावान् होता है । कृष्ण, नील आदि समस्त द्रव्यकर्मप्रकृतियों का निःस्यद (निचोड़) उस-उसकी उपाधि से निष्पन्न होने वाली भावलेल्या है। वही कर्म के स्थितिबन्ध में कारणभूत है। प्रशमरतिप्रकरण की ३८वीं गाया में कहा है-"कृष्ण,
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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