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________________ मायाकषाय का स्वरूप और उसके दुष्परिणाम ४३६ यहाँ इसी विपय के आंतरश्नोका का भावार्थ कहते है--- मार्दव का अर्थ है मृता-कामला, उद्धनना का त्याग । उद्धता मान ग. स्वाभाविक उपाधि-रहित म्वरूप। जाति आदि जिम-जिस पिच म अभिमान पैदा हो, उसका प्रतिकार करने के लिए नम्रता का आश्रय लेना चाहिए । प्रत्येक स्थान र कोमलता, नम्रता और विनय करना और पूज्य पुरुपों का तो विशप प्रकार से विनय करना चाहि । क्योंकि पूज्य पुरुषों की पूजा करने में पाप माफ हो जाते हैं, व्यक्ति पार से मुक्त हो जाता है। बाढ़वनी मुनि अभिमान के वश हो कर पापरूपी लनाओं से घिरे थे, और जब मन में नम्रता का चिन्तन किया तो. उमी समय पाप से मुक्त हो कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था । चक्रवर्ती समार का मम्ब-ध छोड़ कर वैरी के घर भी भिक्षाथं जाते हैं। बाम्नव मे मान छोड़ कर मार्दव ग्रहण करना अनिकठिन है। दीक्षा ले कर चक्रवर्ती भूतपूर्व रक साधु को भी तत्काल वदन करता है। अपनपूर्वाभिमान छोड कर चिरकाल तक उसकी सेवा करता है। इस प्रकार मानसम्बन्धी दोपो का विचार करके नम्रता का आचरण करने से अनेक गुण पैदा होते हैं। यह जान कर अभिमान का त्याग करके माधुधर्म के विशिष्ट गुण-माईव में तन्मय हो कर तत्क्षण उसका आश्रय लेना चाहिए।" अब मायाकषाय का स्वरूप बनाते हैं असूनृतस्य जननी, परशुः शोलशाखिनः । जन्मभूमिरविद्यानां माया दुर्गातकारणम् ॥१५॥ अर्थ. माया असत्य को जननी है, वह शोल अर्थात् सुन्दर स्वभावरूप वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है, अविद्या अर्थात् मिच्यात्व एवं अज्ञान को जन्मभूमि है और दुर्गति का कारण है। भावार्थ-वास्तव में देखा जाय तो माया के विना झूठ ठहर नहीं सकता । माया का अर्थ हो है, दूमरों को ठगने का परिणाम । दूसरों को ठगने के लिए जो माया करता है, वह परमात्र से अपने बापको ही ठगता है। अत: माया के फल का निर्देश करते हैं - कौटिल्यपटवः पापाः मायया बकवृत्तयः । भुवनं वञ्चयमाना वञ्चयन्ते स्वमेव हि ॥१६॥ अर्थ -कुटिलता करने में कुशल पापो बगुले के समान दम्भो वृत्ति वाले माया से जगत को ठगते हुए वास्तव में अपने आप को हो ठगते हैं। व्याख्या-तृतीय कषाय माया है ; उससे जो जगत को ठगता है. वह अपनी आत्मा को ही ठगता है। अपने पापकार्यों को छिपाने की वृत्तिवाला बगुले के समान मायारूप पापकर्म करता है । जैसे बगुला मछली आदि को धोखा देने के लिए धीरे-धीरे चेष्टा करता है, उसी तरह कपट करने वाला भी जगत् को ठगने के लिए बगुले के सदृश चेष्टा करता है। यहां शंका होती है कि मायावी जगत् को ठगता है और वह अपनी माया को छिपाता फिरता है तो वह संचितमाया का इतना बोझ कैसे उठा लेता है ? इसके उत्तर में कहते हैं --ठगने की कुशलता के बिना कोई दूसरे को कदापि नहीं ठग सकता, बोर न अपनी माया को ही छिपा सकता है । जो कुटिलता में पटु होता है, वही दूसरों को ठगने और उसे छिपाये रखने में समर्थ हो सकता है । यहाँ इस सम्बन्ध में कुछ बान्तर एलोकों का भावार्य प्रस्तुत
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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