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________________ ४२६ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश (६) रोग-परिषह-रोग होने पर घबराए नहीं। उसकी चिकित्सा करने की अभिलाषा न रखे, बल्कि अदीन मन से शरीर और आत्मा की भिन्नता समझ कर उस रोग को सहन करे। (१७) तृण-स्पर्शपरिषह- तिनके, घास आदि का बिछौना बिछाया हो, कपड़ा बहुत बारीक हो; इस कारण उसकी नोके चुभती हो. दर्द होता हो तो, सहन करे ; परन्तु कोमल गुदगुदी शय्या की इच्छा न करे। (१८) मलपरिषह-धूप या पसीने से सारे शरीर पर मैल जम गया हो, बदबू आ रही हो, उससे मुनि उद्विग्न न हो। पानी में डुबकी लगा कर या तैर कर स्नान करने की इच्छा न रखे ओर न मैल घिस कर दूर करने की इच्छा रखे । (१९) सत्कार-परिषह-किसी की ओर से विनय, पूजा, दान, सम्मान, प्रतिष्ठा या वाहवाही की अपेक्षा साधु को नहीं रखनी चाहिए। सत्कार न मिले तो उससे मन में दीनता, हीनता या क्षोभ न लाए । यदि सत्कार मिले तो हर्ष या अभिमान न करे। (२०) प्रज्ञा-परिषह-दूसरे को अधिक बुद्धिशाली देख कर और अपनी अल्पबुद्धि न कर मन में खेद न करे और स्वयं में अधिक बुद्धि हो तो उसका अभिमान न करे ; न ही दूसरों को जान देने में खिन्न हो; (२२) अज्ञान-परिषह ज्ञान और चारित्रयुक्त होने पर भी मैं छद्मस्थ है, ऐसा अज्ञान सहन करे और मन में विचार कर कि ज्ञान क्रमानुसार क्षयोपशम से ही प्राप्त होता है। (२२) अदर्शन-परिवह-सम्यक्त्व प्राप्त न होने से वस्तुतत्व को यथार्थरूप से न समझने या न मानने पर दुःख न करे । सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर उमका अभिमान न करे और माने कि जिनेश्वर भगवान् कथित जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, पुनर्जन्म आदि परोक्ष होने पर भी सत्य हैं। इस तरह कर्मों की निर्जरा (अंशतः क्षय) के लिए निर्भय, इन्द्रिय-विजेता और मन, वचन काया पर नियंत्रण करने वाले मुनि शारीरिक, मानसिक या प्राकृतिक परिषहों को समभाव से सहन करें। ज्ञानावरणीय वेदनीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मों के उदय से परीषह होते हैं। वेदनीय कर्म से क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशादि, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मलपरिषह उत्पन होते हैं। ज्ञानावरणीयकर्म के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान तथा अन्तरायकर्म के उदय से अलाभ होता है । यह चौदह परिपह छद्मस्थ को होते हैं और वेदनीय कर्म के उदय से क्षुधा तृषा, शीत, उष्ण दंश, चर्या, वध मल, शय्या, रोग तृणस्पर्श जिन-केवली को भी हो सकते हैं। उपसर्ग आने पर भी वे निर्भय रहते हैं । उप= अर्थात् समीप में, कष्टों का जिससे सर्जन हो, उसे उपसर्ग कहते है अथवा जिससे परेशान किया जाय उसे उपसर्ग कहते हैं । वह चार प्रकार का है। (१) देवकृत, (२) मनुष्यकृत (३) तियंचकृत और (6) स्वत:कृत । इन चारों के प्रत्येक के चार-चार भेद हैं -(१) हास्य से, (२) द्वेष से, (३) विचार-विमर्श परीक्षा करने के लिए और (४) इन सबके इकट्ठे होने से मिश्ररूप से । यह (चौथे प्रकार का) उपसर्ग देवता द्वारा होता है। मनुष्यसम्बन्धी उपसर्ग, हास्य, द्वेष, विमर्श और दुःशीलसग से होते है । तिर्यच-विषयक उपसर्ग भय, क्रोध, आहार अथवा परिवार के रक्षण के लिए होता है। वह इन कारणों से प्रेरित हो कर मारता है, गिराता है या रोकता है। शरीर में वेदना हो अथवा वात-पित्त कफ और सन्निपात होने से भी उपसर्ग होता है। इस तरह परीषहों और उपसगों को समभाव से सहन करने वाला आराधक एवं जिनेश्वर-भगवान के प्रति भक्तिमान होता है। कहा है कि-ससार-समुद्र से पारंगत श्रीजिनेश्वर देवों ने भी अन्तिम संलेखना बाराधना (समाधिमरण-साधना) का अनुष्ठान किया है ; ऐसा जान कर सभी को आदरभक्तिपूर्वक उसकी आराधना करनी चाहिए । कहा भी हैप्रथम तीर्थंकर श्रीऋषभदेव ने निर्वाण के रूप में शरीर की अन्तक्रिया छह उपवास के अनशनरूप
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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