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________________ ४२४ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश करता हूं, और वोतराग केवलज्ञानी तोयंकरों द्वारा कषित धर्म का शरण स्वीकार करता हूं। इहलोके, परलोके, जीविते, मरणे तथा । त्यक्त्वाऽऽशंसां निदानं च समाधिसुधयोक्षितः ॥१५१॥ ___ अर्थ - (१) इहलौकिक आकांक्षा, (२) पारलौकिक आकांक्षा, (३) जोविताकांक्षा, (४) मरणाकांक्षा और (५) कामभोगाकांक्षा से प्रेरित होकर निदान करना, सल्लेखना के इन ५ अतिचारों का त्याग करके समाधिसुधासिक्त हो जाय । ___ व्याख्या-पांच प्रकार के अतिचार-सहित यावज्जीव अनशन का स्वीकार करना चाहिए। वे पाच अतिचार य हैं-(१) अनशन करने के बाद इस लोक में मोह एव रूप, धन, पूजा, कीति, आदि की आकांक्षा रखना, ( ) सलेखना (अनशन) करके परलोक में देवलोक आदि की ऋद्धि-समृद्धि, देवांगना आदि को पाने की इच्छा रखना, (३) अधिक समय तक जीवित रहने की इच्छा करना । अपनी पूजा, प्रशंशा अधिक होते देख कर अथवा बहुत से दर्शनार्थी लोगों को अपने दर्शनार्थ आते-जाते देख कर सभी लोगों से प्रशसा सुन कर अनशन-परायण साधक यों सोचे कि ज्यादा दिन जीऊं तो अच्छा रहे ! (४) चारों आहार का त्याग होने पर अमक स्वर्गीय साधक की तरह का ठाठबाठ या आडम्बर भी होगा, यह सोच कर मृत्यु (प्राणत्याग) की आकाक्षा से संस्लेखना करना; अथवा किसी ने अनशन किया हो परन्तु शरीर मे बीमारी ज्यादा बढ़ जाय, कोई उत्कृट पीड़ा हो या अनादर (सत्कार-पूजाप्रशसा आदि ने) होने के कारण जल्दी मरने की इच्छा करना मरणासंसा है । तथा (५) निदान का अर्थ है-स्वयं ने दुष्कर तप या किसी व्रत-नियम का पालन किया हो, उसके बदले में उन तप आदि के फलस्वरूप 'जन्मान्तर में मैं चक्रवर्ती, वासुदेव, राजा, महाराजा सौभाग्यशाली अथवा रूपवान मनुष्य या देव बनू' इ५ प्रकार के निदान (दु संकल्प) का त्याग करना चाहिए। पुन वह किस प्रकार से? उसे कहते हैं समाषि=परमस्वस्थतारूणी सुधा से सिंचित रहे अर्थात् समाधिभाव में लीन रहे। परीषहोपसर्गेभ्यो, निर्भीको जिनभक्तिभाक् । प्रतिपद्यत मरणमानन्दः श्रावको यथा ॥१५२॥ अर्थ-तथा परिषह और उपसर्ग मी आ जाएं, फिर भी भयभीत न हो तथा जिनेश्वर भगवान् को भक्ति में तन्मय तथा रहे स्वयं आनंद भावक के समान समाधिमरण को प्राप्त करे। व्याख्या कर्मों की निर्जरा के लिए परिषहों (अपने धर्म की सुरक्षा के लिए सहने योग्य कष्टों) को सहन करना चाहिए । धर्मपालन करते समय आने वाले परिषहों (कष्टों) से जरा भी घबराना या विचलित नहीं होना चाहिए । परिषह बाइस हैं । वे इस प्रकार से हैं-(१) अधापरिषह, (२) तृष्णा, (३) शीत, (४) उष्ण, (१) दंश-मणक, (६) अचेलकत्व, (७) अरति, (८) स्त्री, (९) चर्या, (१०) निषद्या, (११) शल्या, (१२) आक्रोश, (१३) वध, (१४) याचना, (१५) मलाभ, (६) रोग, (१७) तृण-स्पर्श,
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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