SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 439
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संल्लेखना : लक्षण, स्थान, विधि और अतिचार ४२३ अर्थ संलेखना करने के लिए अरिहन्त-भगवन्तों के जन्म, दीक्षा, केबलज्ञान अथवा निर्वाण-कल्याणक के पवित्र तीर्थस्थलों पर पहुंच जाए। यदि कल्याणमि निकट में न हो तो, किसो एकान्तगृह (मकान), घर, वन या जीवजन्तु से रहित एकान्त, शान्त, भूमि में संलेखना करे। ___ व्याख्या जहा थी अहंन्न तीर्थक र-प्रसा के जन्म, दीक्षा, कवलज्ञान और निर्वाण ह॥ है, वे याणक भमियां कहलाती है। ऐसी कि.मी एक कल्याणन मि में मलखनाधारक पहच जाए । तीर्थांग के जन्मादिस्थल कहां-कहां हैं । इमे बताते हैं- ऋपभदेवादि : ४ नीर्थकगे की जन्म-कल्याणक भूमियां क्रमशः इम प्रकार समझना । (१) इश्वाकुभूमि. (२) अयोध्या, (३) श्रावस्नो (6) विनीता, (२) कौशलपुर, (६) कौशाम्बी,(७) वाराणमी,(८) चन्द्रानना,(नन्द्रपुरी) (९) काकदी, (१.) भद्दिलपुर,(११) सिहपुर (१२) चम्पापुरी, (१३) कम्पिला, (१४) अयोध्या, (१५) रन्नपुर, (१६-१७-१८) गजपुर-हस्तिनापुर, (१६) मिथिला, (२.) राजगृह, (२१) मिथिला, : २२) शोरपुर, (२.) वागणमी. (२४) कुण्डपुर (वैशालीक्षत्रियकुण्ड) । उनकी दीक्षा-कल्याणक-समितियां इस प्रकार हैं-श्री भगवान ऋषभदेव की दीक्षा विनीता नगरी मे, भगवान अरिष्टनमि को द्वारावनी-द्वारिका में और शेप बाईस तीर्थकरो ने अपनी-अपनी जन्मभूमि मे ही दीक्षा ग्रहण को थी। श्री ऋप भदेव भगवान् ने सिद्धार्थवन में, वासुपूज्य भगवान ने बिहारगृह मे, धर्मनाथ भगवान् ने वप्रगा में, मुनिमुवतस्वामी ने नील गुफा में, पाश्वनाथ भगवान् न आश्रमपद मे, महावीर प्रभु ने ज्ञातृखण्ड मे और शेष तीर्थकरो ने महमाम्रवन उद्यान म दीक्षा-ग्रहण की थी । केवलज्ञानकल्याणकभूमियों -श्री ऋपभदेव भगवान् को परिमनाल में, श्री महावीर भगवान् को ऋजुबालुका नदी के तट पर और शेष तीथंकरों को, उन्होने जिस उद्यान मे दीक्षा ली थी, उमी स्थान के पास केवलज्ञान हुआ था । निर्वाणकल्याणकभूमियां -श्री ऋपभदेव भगवान् अष्टापद पर्वन पर, भगवान महावीर पावापुरी में शेप बीम तीर्थकर सम्मेदशिखर पर निर्वाण प्राप्त हुए। इन कल्याणक-भूभियो म में क्रिमी एक स्थल पर मरणरूप अन्तिमक्रिया स्वीकार करे। यदि जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और निवाण का कल्याणक-स्थान नहीं मिले या निकटवर्ती न हो या मृत्यु के समय पहुंचने की स्थिति न हा ना, घर में, साधुओं के स्थान में-उपाश्रय में, जंगल मे अथवा शत्रु जय आदि मिद्धक्षेत्र में जा कर भमि का प्रतिलेखन-प्रमाणन करके यानी जीवजन्तु से रहित भूमि देख कर, तथा कल्याणक-भूमि आदि में भी जीव जन्तुरहित जगह का प्रमार्जन-प्रतिलेखन करके शान्त एकान्त स्थान में सलेखना करें। त्यक्त्वा चतुर्विध हारं नमस्कार-परायणः । आराधनां विधायोच्चैश्चतुःशरणमाश्रित ॥१५०॥ अर्थ सर्वप्रथम अशन-पान-खादिम-स्वादिमरूप चार प्रकार के आहार का त्याग करके परमेष्ठि-नमस्कार-महामंत्र का स्मरण करने में तत्पर हो जाय। तदनन्तर निरतिचाररूप से ज्ञानादि को आराधना करे और अग्हिन्त, सिद्ध, साधु और धर्मरूपी चार शरणों का आश्रय स्वीकार करे । अथवा अपनी आत्मा का उक्त चारों श्रद्धेय तत्वों को समर्पित करते हुए उच्चस्थर से बोले-. "अरिहते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरण पवज्जामि, केवलिपन्नतं धम्म सरणं पवज्जामि" अर्थात् मैं अरिहन्त भगवान् का शरण स्वीकार करता हूं, सिख परमात्मा का शरण स्वीकार करता हूं, साधु भगवन्तों का शरण स्वीकार
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy