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________________ ४२० योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश की अपेक्षा से समझना चाहिए। जिनकल्पी साधु तो हमेशा कायोत्सर्ग (ध्यान) मे लीन रहते है । प्रतिमाधारी श्रावक सोचे कि कब मुझ ऐसी तल्लीनता प्राप्त होगी? इसी प्रकार वने पद्मासनासीनं क्रोडस्थित-मृगार्भकम् । कदाऽऽघ्रास्यति वक्त्रे मां जरन्तो मृगयूथपा ॥१४४॥ अर्थ-वन में मैं पद्मासन लगा कर बैठा होऊ; उस समय हिरन के बच्चे विश्वासपूर्वक मेरी गोद में आ कर बैठ जाएं और क्रीड़ा करें। इस प्रकार मेरे शरीर की परवाह किये बिना मृगों को टोली के बूढ़े मुखिया कब विश्वास-पूर्वक मेरे मुह को सूघगे? भावार्थ-यहाँ 'वृद्धमग' वहन का अभिप्राय यह है कि वे मनुष्य पर सहसा विश्वास नही करते। परन्तु परमसमाधि को निम्बलता देख कर वे वृद्धमृग भी ऐसे विश्वासी बन जाय कि निर्मयता से मुख चाटे अथवा सूघे । तथा शत्रौ मित्रे तणे स्त्रैणे, स्वर्णेऽश्मानि मणौ मुदि । मोक्षे भवे भविष्याम निविशेषमतिः कदा ॥१४॥ अर्थ-कब मैं शत्रु और मित्र पर तृण और स्त्री-समूह पर ; स्वण और पापाण पर, मणि और मिट्टी पर तथा मोक्ष और ससार पर समबुद्धि रख सकू गा? व्याख्या-शत्रुमित्रादि से ले कर मणि-मिट्टी तक पर समान-बुद्धि रखने वाले मिल मकते हैं किन्तु परम-वैराग्यसम्पन्न आत्मा तो वह है, जिस कम-वियोगरूपमोक्ष और कर्मसम्बन्धरूप ससार में भी कोई अन्तर नहीं दिखता । कहा भी है - 'मोने मवे च सर्वत्र नि:स्पृहो मुनिसत्तमः' अर्थात्- वही मुनि उत्तम है, जो मोक्ष अथवा भव (ससार; के प्रति सर्वत्र नि:स्पृह (निष्कांक्ष) रहता है । इस प्रकार श्रावक के मनोरथ क्रमशः उत्तगेत्तर बढ़कर होते जाते हैं । इस प्रकार प्रथम श्लोक मे जिनधर्म के प्रति अनुराग का मनोरथ, दूमरे श्लोक में साधु-धर्म स्वीकार करने का मनोरथ, तीसरे श्लोक में साघुधर्म की चर्या के साथ उत्कृष्ट चारित्र की प्राप्ति का मनोरथ, चोथे श्लोक में कायोत्सर्ग आदि निष्कम्पभाव की प्राप्ति का मनोरथ, पांचवें श्लोक में सर्वप्राणिविश्वसनीय बनने का मनोरथ और छठे मे परम-सामायिक तक पहुंचने का मनोरथ बनाया है। अब उपसंहार करते हुए कहते हैं अधिरोढुं गुणणि निःश्रेणी मुक्तिवेश्मनः । परानन्दलताकन्दान् कुर्यादिति मनोरथान् । १४६॥ अर्थ-मोक्षरूपी महल में प्रवेश के हेतु गुण(गुणस्थान)-श्रेणीरूपी निःश्रेणी पर बढ़ने के लिए उत्कृष्ट आनन्दरूपी लताकन्द के समान उपयुक्त मनोरथ करे। भावार्थ-जैसे कन्दों से लता उत्पन्न होती है, वैसे ही इन मनोरथों से परमसामायिकरूप परमानन्द प्रगट होता है । इसलिए इन मातों ग्लोकों के अनुसार मनोरथों का चिन्तन करना चाहिए । अब उपसंहार करते हैं...
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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