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________________ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश के लिए शस्त्र भी तैयार किये जा रहे हैं । क्योंकि शस्त्रप्रिय राजा को शस्त्र ही भेट दिये जाते हैं।' मंत्री के छिद्र को जान कर वररुचि ने बालकों को इकट्ठे किये और उन्हें खाने को चने कर, यह सिखाया कि "देखो, तुम लोग जगह-जगह लोगों के सामने इस तरह कहो- 'राजा को इस बात का पता नहीं है किशकटाल मंत्री राजा को मार कर श्रीयक को राजगद्दी पर बिठाना चाहता है। बच्चे रोजाना जगहजगह यह बात लोगों के सामने कहने लगे। धीरे-धीरे लोगों ने यह बात राजा से जा कर कही । राजा ने सोचा-'बालक जो बोलते हैं, श्रेष्ठ नारियां जो कहती हैं. तथा औत्पातिकी भापा में जो बोला जाता है, वह कभी मिथ्या (निष्फल) नहीं होता।' अतः राजा ने इस बात का निर्णय करने के लिए अपने एक विश्वस्त पुरुष को शकटाल मंत्री के यहाँ पता लगाने भेजा। उसने मंत्री के घर में सारी खोजबीन करके पता लगाया और वहां जो कुछ देखा था, हबह आ कर राजा से कह सनाया। सेवा (गजकार्य) के समय जब मत्री ने राजा के सामने उपस्थित हो कर नमस्कार किया, तो राजा अपना मह फिग कर बैठा । मंत्री राजा के भाव को फौरन ताड़ गया। उसने घर आ कर श्रीयक से कहा- मालूम होता है. किसी औपी ने अपने लिए राजा को उलटा समझा कर भड़का दिया है। इसी कारण राजा हम पर क गया है। अतः अब वह अवश्य ही अपने कुल को नेस्तनाबूद करेगा। इसलिए वत्स ! यदि त मेरा माज्ञा के अनुसार करना स्वीकार कर लेगा तो हमारे कुल की रक्षा हो जायगी। वह आजा यह है कि जब मैं राजा को नमस्कार करने के लिए सिर झुकाऊं, तब फौरन ही तलवार से तुम मेरा सिर उड़ा देना। और यों कहना कि 'चाहे पिता ही क्यों न हो, अगर वह स्वामिभक्त नही है तो उसका वध कर डालना ही उचित है । बेटा ! मैं अब बूढ़ा हो चला हूं. दो-चार साल जीया न जीया ; इस तरह से मरू गा तो कुलगृह के स्तम्भ-समान तू तो कम से कम चिरकाल तक मौज करेगा ।' यह सुन कर श्रीयक गद्गद् कंद से रोता हबा बोला-'तात ! ऐसा घोरपापकर्म तो चाण्डाल भी नही करता ; मुझ से यह कैसे होगा?' तब मंत्रीश्वर ने कहा-"अगर तू ऐसा विचार करेगा तो केवल दुश्मनों का ही मनोरथ पूर्ण करेगा और यमराज-सा कोपायमान राजा हमें कुटुम्बसहित मार डालेगा । अत: मेरे एक के नाश से अगर सारे कुटुम्ब की रक्षा होती हो तो मुझे इसका जरा भी रज नहीं होगा। रही तेरे धर्म की रक्षा की बात ; सो में पहले से ही अपने मुंह में तालपुट विष रख कर राजा को नमस्कार करूंगा ; अत: तू मुझ मृत के मस्तक मोकाट देना, जिससे तुझ पितृहत्या का पाप नहीं लगेगा।" इस तरह बहुतेरा समझाने पर बड़ी मुश्किल श्रीयक ने बात स्वीकार की ; क्योंकि दुखिशाली व्यक्ति भविष्य के शुभ के लिए वर्तमान समय को भयंकर बना देते हैं। पिता की आज्ञा मान कर धीयक ने राजसभा में राजा के स मने ही पिता का मस्तक काट डाला । राजा यह देख कर हक्का-बक्का-सा हो कर श्रीयक से पूछने लगा 'वत्स ! ऐसा दुष्कर अकार्य तुमने क्यों किया ?' श्रीयक ने कहा-"आपने देखा कि मेरा पिता राजद्रोही है ; अतः मैंने उसे मारा है । सेवक सदा स्वामी के मनोऽनुकूल ही व्यवहार करते हैं। यदि स्वयं को दोष दीखे तो विचारणीय होता है; परन्तु स्वामी को अगर किसी सेवक में दोष दिखाई दे तो उसका तुरन्त प्रतिकार करना ही उचित है ; वहाँ कोई विचार करना उचित नहीं।" महामन्त्री शकटाल को मरणोत्तरक्रिया करने के बाद नंदराजा ने श्रीयक को बुला कर कहा - यह समस्त राज्य-व्यवस्था कार्यभार तुम संभालो और यह लो मन्त्री-मुद्रा।" इस पर श्रीयक ने राजा को प्रणाम करके कहा-'देव ! पिता के समान मेरा बड़ा भाई स्थूलभद्र मौजूद है, जो मेरे पिता की रूपा से आनंदपूर्वक कोशा-गणिका के यहां बारह वर्ष से सुखभोगपूर्वक जीवन बिता रहा है। वही इस राज्य के मंत्रित्व का प्रथम अधिकारी है। यह बात सुन कर राजा ने स्थूलभद्र को बुलाया और उसे मंत्री-मुद्रा
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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