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________________ शकटाल मंत्री और वररुचि पण्डित की परस्पर तनातनी ४.३ एक पर्दे के पीछे कोई न देखे, इस तरह बिठा दी। सदा की भांति पण्डित वररुचि ने १०८ नये श्लोक बना कर प्रस्तुत किए। उसके तुरंत बाद मंत्री की यक्षा आदि सातों पुत्रियों ने क्रमशः वे श्लोक ज्यों के त्यों पुनः बोल कर सुना दिए । इस तरह राजा लड़कियों के मुह से सात बार वररुचि-निर्मित श्लोकों को सुन कर अतिरुष्ट हो गया। उसने अब वररुचि को दान देना बंद कर दिया। सच है, मन्त्रियों के पास अपकार और उपकार दोनों के उपाय होते हैं। वररुचि को भी एक उपाय सूझा। वह गंगातट पर पहुंचा और गंगा के पानी में एक यंत्र स्थापित किया। यंत्र के साथ वह पहले से १०८ स्वर्णमुद्राएं कपड़े को एक पुटली में बांध देता। फिर सुबह गंगा की स्तुति करता, उस समय पर से यंत्र को दबाता, जिससे सारी मुहरें उछल कर उसके हाथ में आ जाती थी। इस तरह वह प्रतिदिन करता था। नगर में सर्वत्र इमकी शोहरत हो गई । नागरिकों में बड़ा कुतूहल पैदा हुआ। वे विस्मयविमुग्ध हो कर उसे देखने आने लगे। धीरे-धीरे यह बात राजा के कानो में पहंवी । अतः राजा ने मंत्री को बुला कर उसके सामने वररुचि की प्रशंसा की। इस पर मत्री बोला . 'यदि यह बात सच है तो प्रात:काल आप स्वयं वहाँ देखने पधारें ' इसके बार मंत्री ने अपने एक विश्वस्त व्यक्ति को समझा कर गुप्तरूप से उसका भेद लेने के लिए भेजा। वह वहां जाकर पक्षी के समान वृक्ष के एक खोखल म छिप कर बैठ गया और देखता रहा कि वररुचि क्या करता है ? इधर वररुचि गगाजल में स्थापित यत्र में चुपचाप १०८ स्वर्णमुद्राओं की पोटलो रख कर घर चला गया । उसके जाने के बाद उस गुप्त पुरुष ने चुपके से स्वर्णमुद्राओं की वह जीवनसर्वस्व पोटली उठाई और उसे ले कर वह सीधा शकटालमत्री के पास पहुंचा और उन्हें एकान्त में बुला कर चुपचाप वह पोटली सौंप दी तथा उसका सारा भेद मत्री को बता दिया। रात बीतते ही सुबह मंत्री उस पोटली को अपने साथ ले कर गजा के साथ गंगा नदी पर पहुंचा। ज्यों ही वररुचि ने देखा कि आज राजा स्वयं यह कौतुक देखने पधारे हैं, त्यों ही अभिमानी बन कर मूढ़ वररुचि जोर-जोर से अधिकाधिक स्तुति करने लगा । स्तुति पूर्ण होते ही उमने पैर मे उस यंत्र को दबाया, लेकिन स्वर्णमुद्राओं की पोटली उछल कर बाहर नहीं आई अतः वह भौंचक्का हो कर पानी में हाथ डाल कर द्रव्य को टटोलने लगा मगर धन की पोटली नहीं मिली । अतः वररुचि का चेहरा उतर गया। वह अवाक हो कर बैठ गया। तभी महामंत्री ने उसे छेड़ते हुए कहा-"क्या पहले रखा हुआ धन गंगा नहीं दे रही है. जिसे तू बार-बार दूद रहा है ? यह ले, तेग धन ! पहिचान कर ले ले इसे !" यों कहते हुए मंत्री ने वररुचि के हाय मे वह स्वर्णमुद्राओं की वह पोटली थमा दी। यह देख कर वररुचि के हृदय में तहलका मच गया । स्वर्णमुद्राओं की उस पोटली ने वरचि की सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिला दी। इसलिए वह मौत से भी बढ़कर असह्य दशा का अनुभव कर रहा था। शकटालमंत्री ने राजा से कहा-'देव ! देखिये इसकी पोपलीला को ! लोगों को ठगने के लिए यह शाम को इस यंत्र के अंदर द्रव्य डाल देता है, और सुबह स्तुति का ढोंग रच कर इसे ग्रहण करता है !' राजा ने कहा- "तुमने इसके इस प्रपंच का मेरे सामने भंडाफोड़ कर बहुत अच्छा किया।" यों कह कर राजा विस्मित नेत्रों से वररुचि को देखता हुआ अपने महल में पहुंच गया। शकटाल मंत्री के इस रवैये से वररुचि मन ही मन बहुत क्रुद्ध हो गया और इस अपमान का बदला लेने की ठानी । एक दिन वररचि ने मंत्री के घर की किसी दासी को प्रलोभन दे कर उससे उसके घर की मारी बातें पूछौं । मंत्री की दासी ने बताया कि नंत्री पुत्र श्रीयक के विवाह की तैयारी हो रही है । उसमें राजा को भी भोजन का आमंत्रण दिया गया है। नंदराजा को उस समय नजराना देने
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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