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________________ ३८८ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश हो कर बैठना । शब्द से मौन धारण करना, और मन से शुभध्यान करना । श्वासोच्छ्वासादि अनिवार्य शारीरिक चेष्टाओं के सिवाय-मन वचन-काया की समप्र प्रवृत्तियों का त्याग करना कायोत्सर्ग कहलाता है। वह काउस्सग्ग जितने श्वासोच्छावास का हो, उतने प्रमाण में नवकार या लागस्स का चिन्तन करे। उसके पूर्ण होने पर 'नमो मरिहताणं' का उच्चारण करना । वहां तक ऊपर कहे अनुसार कायोत्सर्ग करे । वह कायोत्सगं दो प्रकार का है-एक चेष्टा (प्रवृत्ति) वाला और दूसरा उपसर्ग (पराभव) के समय में; जाने-आने आदि की प्रवृत्ति के लिए । इरियावहि आदि का प्रतिक्रमण करते समय जो का उस्सग किया जाता है, वह चेष्टा (प्रवृत्ति) के लिए जानना, और जो उपसर्ग-विजय के लिए किया जाता है, वह पराभव के लिए जानना । कहा है कि चेप्टा और परामब की दृष्टि से कायोत्सर्ग के दो भेद हैं। भिक्षा के लिये जो प्रवृत्तियाँ की जाती हैं, वे चेष्टा-कायोत्सर्ग के अन्तर्गत आती हैं एवं उपसर्ग के लिए जो किया जाय, वह पराभव से अन्तर्गत आता है। चेष्टा-कायोत्सर्ग जघन्य आठ से लेकर पच्चीस, सत्ताईस, तीन सौ, पांच सौ, और ज्यादा से ज्यादा एक हजार आठ श्वासोच्छ्वास प्रमाण वाला होता है। और उपसर्ग आदि पराभव के लिए जो कायोत्सर्ग किया जाता है, वह एक मुहूर्त से ले कर बाहुबलि के समान एक वर्ष तक का भी होता है। वह काउस्सग्ग तीन प्रकार की मुद्रा से होता है-खड़े-खड़े, बैठे-बैठे और सोए-सोए भी होता है। इन तीनों के प्रत्येक के चार-चार भेद हैं । उसमें से पहला प्रकार हैं-'उच्छ्रितोच्छित है । अर्थात् द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से खड़े होना अर्थात् द्रव्य से शरीर से खड़े होना और भाव से धर्म या शुक्लध्यान में खड़े (स्थिर) होना । दूसरा-'उच्छ्रितानुच्छित' है । अर्थात् द्रव्य से खड़े रहने के लिए उच्छित और भाव से कृष्णादि अशुभलेश्या (परिणाम) के होने से अनुच्छ्रित । तीसरा-अनुच्छितोन्छित है। अर्थात् द्रव्य से नीचे बैठ कर और भाव से धर्मध्यान या शक्लध्यान में उद्यत हो कर, तथा चौथा 'अनुच्छितानच्छित' अर्थात् द्रव्य से शरीर से नीचे बैठना और भाव से कृष्णादि लेश्या के उतरते अशुभपरिणामो के कारण परिणामों से नीचे बैठना । इस प्रकार बैठते, उठते और सोते हुए के चार चार भेद जानना। कायोत्सर्ग दोषों से बच कर करना चाहिए । कायोत्सर्ग के इक्कीस दोष आचार्यों ने बताए हैं कायोत्सर्ग के दोष-1१) घोड़े के समान एक पैर से खड़े हो कर काउस्सग्ग करना, घोटक होष है । (२) जोरदार हवा से कांपती हुई बेल के समान शरीर को कंपाना, लतादोष है (७) खभे का सहारा ले कर काउस्सग्ग करना, स्तम्मदोष (४) दीवार का सहारा ले कर काउस्सग्ग करना कुड्यदोष है। (५) ऊपर छत के मस्तक अड़ा कर काउस्सग्ग करना, मालदोष है, (६) भीलनी के समान दोनों हाथ गुह्य-प्रदेश पर रख कर काउस्सग्ग करना, शबरोबोष है; (७) कुलवधू के समान मस्तक नीचे झुका कर काउस्सग्ग करना, वदोष है ; () बेड़ी में जकड़े हुए के समान दोनों पर लम्बे करके अथवा इकट्ठे करके कायोत्सर्ग में खड़ा होना, निगडदोष है, (९) नाभि के ऊपर और चुटने से नीचे तक चोलपट्टा बांध कर काउस्सग्ग करना लम्बोत्तरदोष है। (१०) जैसे स्त्री वस्त्रादि से स्तन को ढकती है, वैसे ही डांसमच्छर के निवारण के लिए अज्ञानतावश काउस्सग्ग में स्तन या हत्यप्रदेश ढकना, स्तनदोष है ; अथवा धायमाता जैसे बालक को स्तनपान कराने के लिए स्तनों को नमाती है; से स्तन अथवा छाती को नमा कर काउस्सग्ग करना भी स्तनदोष है। (११) बैलगाड़ी से पीछे के दोनों पहियों के सहारे अधर खड़ी रहती है, वैसे ही पीछे की दोनों एड़ियों या आगे के दोनों अंगूठे इकट्ठे करके अथवा दोनों अलगअलग रख कर अविधि से काउस्सग करना वह शकटोध्यिका नामक दोष है (१२) साध्वी के समान मस्तक के सिवाय बाकी के पूरे शरीर को कायोत्सर्ग में वस्त्र से ढक लेना, संयतीदोष है (१३) घोड़े की
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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