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________________ देववन्दन के बाद श्रावक की दिनचर्या का वर्णन ३७१ आसनाभिग्रहो भक्त्या, वंदना पर्युपासनम् । तद्यानेऽनुगमश्चेति, प्रतिपत्तिरियं गुरोः ।।१२६॥ अर्थ-गुरु महाराज को देखते ही आसन छोड़ कर आदरपूर्वक खड़े हो जाना, उनके सामने जाना, वे आ गये हों तो मस्तक पर अंजलि करके हाथ जोड़ कर 'नमो खमासमणाणं' वचन बोलना, यह कार्य स्वयं करना, दूसरे से नहीं कराना और स्वयं आसनप्रदान करना, गुरु-महाराज के आसन पर बैठ जाने के बाद, स्वयं दूसरे आसन पर बैठना, बाद में भक्तिपर्वक पच्चीस आवश्यक को विधिपूर्वक वदना करना। गुरुदेवको कहीं जाना न हो और किसी कार्य में रुके । हों तो पर्युपासना=सेवा करना, उनके जाने पर कुछ दूर तक अनुगमन करना, इस प्रकार गुरु को प्रतिपत्ति (धर्माचार्य का उपचार-विनय) जानना। उसके बाद गुरुमहाराज से धर्मदेशना सुन कर ततः प्रतिनिवृत्तः सन् स्थानं गत्वा यथोचितम् । सुधीधर्माविरोधेन विदधीतार्थचिन्तनम् ॥१२७॥ अर्थ-मंदिर रो वापिः आ कर अपने-अपने उचित स्थान पर (अर्थात राजा हो तो राजसभा में, मन्त्री आदि हो तो न्यायालय में, व्यापारी हो तो दूकान में) जा कर जिससे धर्म को आंच न आए, इस प्रकार बुद्धिशाली श्रावक धनोपार्जन का चिन्तन करे। व्याख्या-यहां जो अर्थोर्जिन की चिन्ता कही है, वह अनुवादमात्र समझना ; क्योंकि यह बात प्रेरणा के बिना स्वतःगि । उसका विधान इस प्रकार से समझना 'सद्गृहस्थ की अर्थचिन्ता धर्म से अविरोधीरूप में हो। धर्म का अविरोध इस प्रकार समझना-यदि राजा हो तो उसे दरिद्र या श्रीमान, मान्य हो या अमान्य, उत्तम हो अथवा नीच, किसी के प्रति पक्षपात रखे बिना न्याय करना चाहिए। और राजसेवक को राज्य और प्रजा की निष्ठापूर्वक यथार्थसेवा करनी चाहिए। तथा व्यापारी को चाहिए कि वह झूठ नाप-तौल (बांट-गज) छोड़ कर पन्द्रह-कर्मादानरूप व्यवसाय बन्द करके अर्थ का चिन्तन करे। ततो माध्याह्निकी पूजां कुर्यात् कृत्वा च भोजनम् । तद्विद्भिः, सह शास्त्रार्थ रहस्यानि विचारयेत् ॥१२॥ अर्थ-तत्पश्चात् दिन की मध्यकालीन प्रभु-पूजा करके फिर भोजन करे । यह आधे श्लोक का भावार्थ है, मध्याह्न को ही भोजन हो, ऐसा कोई नियम नहीं है. जब तीन भूख लगी हो, उसी समय को भोजनकाल कहा है। यदि मध्याह्नकाल के पहले भी पच्चक्खाण पार कर देवपूजा करके भोजन करे तो दोष नहीं है। उसकी विधि इस प्रकार है-जिनपूजा, उचित दान, कुटुम्ब परिवार को सारसंभाल लेना, उनके योग्य उचित कर्तव्य का पालन करना, मल हो तो ममझाना अथवा उपदेश देना तथा स्वयं द्वारा किए हुए पच्चक्खाण का स्मरण करना।' भोजन करने के बाद यथाशक्ति गंठसी, वेढसी, मुट्ठसी सहित कोई भी पच्चक्वाण कर लेना चाहिए। प्रमाद-त्याग के अभिलाषी आत्मा को एक क्षण भी प्रत्याख्यान के बिना नहीं रहना चाहिए। प्रत्याख्यान करने के बाद शास्त्रों के अर्थ, और तात्पर्य पर विचार
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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