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________________ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश नहीं करनी चाहिए, विशेषतः गुणवान की तो कदापि नही करनी चाहिए, क्योंकि वह लोकविरुद्ध है तथा धर्म-आराधना में सरल मनुष्य की कही भूल हो जाय तो उसका हाम्य करना, लोगों में माननीय-पूजनीय का अपमान करना, जिसके बात विरोधी हों, उनकी सोहबत करना, देश लाल और कूल के आचार का उल्लंघन करना; अर्थात् ब्यवहार के विरुद्ध चलना, उद्धत दे ग धारण करना नथा स्वयं द्वारा किये हुए दान, तप, यात्रा आदि की अपने मुह से बड़ाई करना ; इसे भी कितने ही आचार्य लोकविरुद्ध मानते हैं तथा साधु-पुरुषों पर संकट आया हो तो उसे देख कर खुश होना, एव सामर्थ्य होने पर भी संकट से बचाने का प्रयत्न न करना, इत्यादि वातें भी लोकविरुद्ध समझी जाती है। प्रभो ! ऐसे कार्यों का मैं त्याग करू!" तथा गुरुजणपूआ=गुरुजनों की उचित सेवारूप पूजा करना । यद्यपि धर्माचार्य ही गुरु कहलाते हैं ; तथापि यहाँ माता-पिता, कलाचार्य आदि को भी गुरुजन (बड़े) समझ लेना चाहिए। योगबिन्दु में कहा है - 'माता-पिता, कलाचार्य, विद्यागुरु. उनके मम्बन्धी, वृद्ध तथा धर्मोपदेशक इन सभी को सत्पुरुप गुरु-तुल्य मानते हैं । 'परत्यकरणं च'=मर्त्यलोक में सारभत दुमरे जीवो की भलाई का कार्य परोपकार करना । वास्तव में यह धर्मपुरुषार्थ का चिह्न है। इस प्रकार से पूर्वोक्त गुणो की प्राप्ति में साधक जीवन में लौकिक सुन्दरता प्राप्त करता है और वही लोकोत्तर धर्म का अधिकारी बनता है। इसलिए कहते हैं'सुहगुल्जोगो' - विशिष्ट चारित्रवान, पवित्र शुभगुरुओं साधुसाध्वियों एव धर्माचार्यों का संयोग-निधाय मिले, 'तन्वयणसेवणा' == उन सद्गुरुओं के वचनानुसार आचरण करना। ऐसे सद्गुरु भगवन्त कभी अहितकर उपदेश नहीं देते। इसलिए उनके वचनों की संवा 'आभमखडा' अर्थात जब तक संसार में परिभ्रमण करना पड़े, वहां तक संपूर्णरूप में प्राप्त हो। यह प्रायना वासकर त्याग की अभिलाषारूप होने से (नियाणा) निदानरूप नहीं है ; और वह भी 'अप्रमत्तसयम नामक गातव गुणस्थानक के पहले ही होता है । अप्रमत्त गुणस्थानक से आगे जीव को संसार या मोक्ष की अभिलापा नहीं रहती, उनके लिए शुभ-अशुभ सभी भाव समान होते हैं । इस तरह शुभफल की प्रार्थनारूप जय वीयराय की दो गाथा तक उत्कृष्ट चैत्यवन्दन की विधि जानना। अब इसके आगे के कर्तव्य के सम्बन्ध मे कहते हैं : ततो गुरूणामभ्यर्णे प्रतिपत्तिपुरस्सरम् । विदधोत विशुद्धात्मा, प्रत्याख्यानप्रकाशनम् ॥१२४॥ अर्थ-देव-वंदन करने के बाद गुरु या धर्माचार्य देववंदन करने पधारे हुए हों, अथवा स्नात्रादि-महोत्सव के दर्शन करने या धर्मोपदेश देने पधारे हों अथवा विहार करते हए पधारे हों, तो उनके पास जा कर साढ़े तीन हाथ दूर खड़े हो कर विनयपूर्वक वंदन करे, उनका व्याख्यान सुने । बाद में देवसमक्ष किया हुआ प्रत्याख्यान दम्भरहित व निर्मलचित्त हो कर गुरु-समक्ष प्रगट करे। क्योंकि प्रत्याख्यान को विधि तीन की साक्षी से होती है(१) आत्मसाक्षी से, (२) देवसाक्षी से और (३) गुरुसाक्षी से। पूर्वोक्त श्लोक में-'प्रतिपत्तिपूर्वक' ; कहा है। अत: गुरुप्रतिपत्ति (विनय) को दो श्लोकों में कहते हैं--- अभ्युत्थानं तदा लोकेऽभियानं च तदागमे। शिरस्यंजलि-संश्लेषः स्वयमासनढोकनम् ॥१२॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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