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________________ अरिहन्त और भगवान् शब्द पर विवेचन ३४१ अरहंताणं ( अरोहदभ्यः) पाठान्तर भी है । जिसका भावार्थ है - कर्मबीज क्षीण होने से जिसके संसाररूपी अंकुर फिर उगते नहीं । अथवा संसार में जिनका फिर जन्म नहीं होने वाला है, वे भी अच्हत कहलाते हैं । इसलिए कहा भी है कि बीज सर्वथा जल जाने पर से अंकुर प्रगट नहीं होता, वैसे ही कर्मबीज सर्वथा जल जाने पर भवरूपी अंकुर प्रगट नही होता, यानी जन्म-मरण नहीं होता । वैयाकरणो ने 'अर्हत्' शब्द के प्राकृत भाषा में तीन रूप माने हैं-- (१) अहंत (२) अरिहंत, और (३) अरुहंत । हमने भी सिद्ध हैमव्याकरण के उच्चार्हति || ८|२| १११ ।। सूत्र से तीन रूप सिद्ध किए हैं। 'उन अर्हन्तों को नमस्कार हो' ऐसा सम्बन्ध जानना । 'नमोत्युणं' नमोऽस्तु में नमः शब्द के योग में चतुर्थी विभक्ति हुआ करती है, लेकिन 'चतुर्थ्याः षष्ठी' || ६|३ | १३१ ।। इस सूत्र से प्राकृतभाषा में चतुर्थी के स्थान में पष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है । तथा जो एक ही परमात्मा को मानने वाले हैं; उनका खण्डन करने के लिए बहुवचन का प्रयोग किया है । अतवादियों के 'एक ही परमात्मा' मत का खण्डन करके व अनेक अरिहन्त परमात्मा है, ऐसा सिद्ध करने के लिए तथा एक के बदले अनेकों को नमस्कार करने से अधिक फल मिलता है; यह बतलाने के लिए भी बहुवचन का प्रयोग किया है। और उन अरिहत भगवान् के नाम, स्थापना द्रव्य और भाव से अनेक भेद हैं। यहां भाव-अरित को मेरा नमस्कार हो, ऐसा बतलाने के लिए 'भगवताण' विशेषण का प्रयोग किया है । भगवंताण में 'भग' शब्द के चौदह अर्थ होते हैं । वे इस प्रकार हैं - ( १ ) सूर्य ( २ ) ज्ञान (३) माहात्म्य (४) यश (५) वैराग्य ( ६ ) मुक्ति (७) रूप (८) वीयं (६) प्रयत्न (१०) इच्छा (११) श्री (१२) धर्म (१३) ऐश्वर्य और (१४) योनि । इनमें से भग के सूर्य और योनि इन दो अर्थों को छोड़ कर शेष बारह अर्थ यहाँ मान्य है। जिसमे भग= ज्ञान, वैराग्य आदि हो, उसे भगवान् कहते हैं । (२) भगवान् के जीवन मे 'भग' शब्द में निहित अर्थों की व्याख्या करते हैं - ( १ ) ज्ञान - गर्भ में आये, तब से ले कर दीक्षा तक भगवान् मे मति, श्रुत और अवधि ये तीन ज्ञान होते हैं और दीक्षा लेने के बाद से घातकर्म के क्षय होने तक चौथा मनः पर्यवज्ञान भी रहता है । तथा घातिकमं क क्षय होने के बाद अनतवस्तुविषयक समग्रभावप्रकाशक केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है । माहात्म्य का अर्थ है - प्रभाव अतिशय । भगवान् के सभी कल्याणकों के समय नरक के जीवों को भी सुख उत्पन्न होता है, तथा गाढ़ अन्धकाराच्छन्न नरक में भी प्रकाश हो जाता है। भगवान् के गर्भ में आने पर कुल में धन, समृद्धि आदि की वृद्धि होती है; नहीं झुकने वाले सामंत राजा भी झुकने लगते हैं। तथा दुर्भिक्ष महामारी आदि उपद्रव दूर हो कर वररहित राज्य पालन होता है, एवं जनपद = देश अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि उपद्रवो स रहित होता है । उनके प्रभाव से आसन चलायमान होने से देव, असुर आदि उनके चरण-कमलो मे नमस्कार करते है । इस तरह वे प्रभाव = अतिशय वाले होते हैं। (३) यश - रागद्वेष, परिपह, उपसर्ग आदि को पराक्रम से जीतने से भगवान् को यश मिलता है, उनकी प्रतिष्ठा सर्वदा स्थायी होती है। जिस यश क देवलोक में सुर-सुन्दरी और पाताल में नागकन्या गीत गाती हैं। उस यश की प्रशंसा नित्य देव और असुर करते हैं । (४) वैराग्य - अर्हन्त भगवान् को देव और राजा की ॠद्धि का उपभोग करते हुए भी उस पर जरा भी राग नहीं होता। जब दीक्षा अंगीकार करते हैं, तब समस्त भोगों और ऋद्धि-समृद्धि का त्याग करते हैं । फिर उस ऋद्धि से उन्हें क्या लाभ? जब कर्म क्षीण हो जाते हैं, तब सुख-दुःख में, संसार और मोक्ष पर उनका उदासीन भाव होता है। इस तरह तीनों अवस्थाओं में प्रभु वैराग्य-सम्पन्न होते हैं ।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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