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________________ ३४० योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश श्रावक अथवा अविरति सम्यग्दृष्टि या अपुनर्बन्धक यथाभद्रक भलीभांति प्रमाणन और प्रतिलेखन की हुई भूमि पर बैठते हैं, फिर प्रभु की मूर्ति पर नेत्र और मन को एकाग्र करके उत्कृष्ट संवेग और वैराग्य से उत्पन्न रोमांच से युक्त हो कर आँखों से हर्षाश्रु बहाते हैं। तथा यों मानते हैं कि वीतराग प्रभु के चरण-वन्दन प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। तथा योगमुद्रा से अस्खलित आदि गुणयुक्त हो कर मूत्र के अर्थ का स्मरण करते हुए प्रणिपातकसूत्र (नमोत्यणं सूत्र) बोलते हैं। इसमें संतीस आलापक पद हैं । ये आलापक दो, तीन चार; तीन, पांच, पांच; दो चार, और तीन पद मिल कर कुल नौ संपदाओं (रुकने के स्थान) में हैं । इन सम्पराओं के नाम तथा प्रमाण, उनका अर्थ यथा-स्थान कहेंगे । 'नमोत्यणं' पाठ को व्याख्या -- नमोत्युणं अरिहंताणं भगवंताणं- इसमें 'नमो' पद नपातिक है। वह पूजा अर्थ में व्यवहृत होता है। पूजा द्रव्य और भाव से संकोच करके (नम कर) करना चाहिए । जिसमें हाथ, सिर पर आदि शरीर के अवयवों को नमाना, द्रव्यसंकोच है, और विशद्ध मन को चैत्यवंदन आदि में नियुक्त करना, भावसंकोच है । 'अस्तु' का अर्थ है-'हो'। इस प्रार्थना का आशय विशुद्ध होने से यह धर्मवृक्ष का बीज है। ‘णं' वाक्यालंकार में प्रयुक्त किया गया है। जो अतिशय पूजा के योग्य हों, वे अर्हन्त कहलाते हैं । कहा भी है- 'वन्दन-नमस्कार करने योग्य, पूजा-सत्कार करने योग्य एवं सिद्धगति प्राप्त करने योग्य अर्हन्त कहलाते है । अब दूसरी व्याख्या करते हैं सिद्धहमशब्दानुशामन के 'सुद्विषाहः सत्रिशवस्तुत्ये ॥५।२।२६ । इस सूत्र से वर्तमानकाल में 'अतृश्' प्रत्यय लगता है । इस प्रकार 'अहं पूजायाम्' अहं धातु पूजा अर्थ में है, उसके आगे 'अत् प्रत्यय लग जाने से 'अहंत्' शब्द बना । अथवा जहाँ अरिहत रूप हो, वहाँ अरि यानी शत्रु, उनके हन्ता : हननकर्ता) होने से अरिहन्त कहलाता है। वे शत्रु हैंमिथ्यात्व मोहनीय आदि साम्परायिक कर्म जो बन्धन के हेतुभूत हैं । अनेक भवो के जन्म-मरण के महादुःख को प्राप्त कराने में कारणभूत मिथ्यात्व आदि कर्मशत्रुओं को नष्ट करने से वे अरिहन्त कहलाते हैं। तीसरी व्याख्या-रज को हरण करने से अरहन्त । यहाँ रज से मतलव चार घातिकर्मों से है। जैसे सूर्य बादल में छिपा होने पर भी प्रकटरूप में प्रकाश नहीं दिखता, उसी तरह आत्मा चार घातीकर्मरूपी रज से ढका हुआ होने से ज्ञानदर्शनादिगुणरूप स्वभाव होने पर भी नहीं दिखता है। इसलिए आत्मगुणों को ढकने वाले घातिकर्म रूपी धूल को नाश करने से वे अरहन्त कहलाते हैं । चौथी व्याख्या ई भी रहः यानी गुप्त नहीं होने से भी अरहन्त कहलाते हैं। इसी तरह भगवान के जो ज्ञानदर्शन गुण हैं, उन्हें प्राप्त करने में ज्ञानावरणीय आदि कर्मों को पराधीनता है, उनका सर्वथा नाश करके सम्पूर्ण, अनंत, अद्भुत, अप्रतिपाति, शाश्वत केवलज्ञान-केवलदर्शन उत्पन्न हुआ है, इन दोनों से वे सम्पूर्ण जगत् को सदा एक साथ जानते और देखते हैं। इस कारण उनसे कोई भी बात छिपी नहीं रहती, अत: वे अरहन्त कहलाते हैं । इन तीनों व्याख्याओं में व्याकरण के पृषोदरादयः सूत्र' से अहत् शब्द की सिद्धि तीन प्रकार से होती है । अथवा 'रहः' का अर्थ एकान्तरूप दंश, पवंतगुफा, स्थान, देश का अन्त, या मध्यभाग होता है । अ शब्द अविद्यमान अर्थ का द्योतक है। यानी सर्वज्ञ एवं सम्पूर्णश होने से जिनके लिए कोई देश, या स्थानादि एकान्त या गुप्त नहीं रहे, इस कारण छिपी न रहती हो वे अरहोऽन्तर कहलाते हैं । अथवा अरहदभ्यः रूप भी होता है। जिसका अर्थ है- राग क्षीण होने से जिसकी किसी भी पदार्थ में आसक्ति नहीं है । अथवा रागद्वेष का हेतुभूत इच्छनीय अथवा अनिच्छनीय पदार्थगत विषयों का सम्पर्क होने पर भी अपने वीतरागादि स्वभाव का त्याग नहीं करते ; इस कारण वे अरहन्त कहलाते हैं । अथवा 'अरिहंताणं' ऐसा पाठान्तर भी है। उसका अर्थ है-कर्मरूपी शत्र का नाश करने वाले। कहा भी है कि 'आठ प्रकार के कर्म सभी जीवों के शत्रुरूप हैं । उन कर्म आदि शत्रुओं (अरियों) का हनन करने से अरिहन्त कहलाते हैं।'
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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