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________________ लामा-रस-केश-विषवाणिज्य और यंत्रपीड़न-कर्म के स्वरूप ३१७ अर्थ - लाख, मेनसिल, नील, धातकोवृक्ष, टंकणखार आदि पापकारी वस्तुओं का व्यापार करना, लाक्षावाणिज्य कहलाता है। व्याख्या. लाख का व्यापार करना, उपलक्षण से उसके समान दूसरे मेनसिल, नील, धातकीवृक्ष (जिमकी छाल, फल और फूल शराब बनाने में काम आते हैं); इन सवका व्यापार करना लाक्षावाणिज्य है। ये मारे व्यापार पाप के कारण भूत होने से त्याज्य है। टंकणखार, मेनसिल आदि दूसरे जीवों का नाश करते हैं । नील जीवों के सहार के विना बन नहीं सकती। धातकीवृक्ष मद्य बनाने का कारण होने से पाप का घर है । अतः इसका व्यापार भी पाप का घर होने से त्याज्य है। इस प्रकार के व्यापार को लाक्षावाणिज्य कहा जाता है। अब एक ही श्लोक में सवाणिज्य और केशयाणिज्य दोनों का ग्वरूप बनाते हैं नवनीत-वसा-क्षौद्र-मद्यप्रभृतिविक्रयः । द्विपाच्चतुष्पाद्विक्रयो वाणिज्यं रसकेशयोः॥१८॥ अर्थ-मक्खन, चर्बी, शहद, मदिरा आदि का व्यापार रसवाणिज्य और दो पर वाले और चार पैर वाले जीवों का व्यापार केशवाणिज्य कहलाता है। व्याख्या - नवनीत, चर्वी, शहद, शराब, आदि का व्यापार करना रसवाणिज्य है और दो पैर वाले मनुष्य-दास-दासी व चार पैर वाल गाय, भेड़, बकरी, आदि पशुओं का व्यापार करना केश-वाणिज्य है। इनका जीव-सहित व्यापार करना केशवाणिज्य है और जीव-रहित जीव के अंगों-हड्डी, दांत आदि का व्यापार करना दंतवाणिज्य है. यह अन्तर समझना चाहिए । रस और केश शब्द में अनुक्रम से सम्बन्ध होता है। मक्खन में संमूच्छिम जीव उत्पन्न होते हैं, चर्बी और मधु जावों की हिंसा से निष्पन्न होते हैं। मदिरा मे उन्माद पैदा होता है ; उसमें पैदा हुए अनेक कृम-जोयो का धान होता है । दो पर वाले मनुष्य और चार पैर वाले पशुओं के व्यापार से उनको पराधीनता, वध, बन्धन, भूख, प्याम आदि की पीड़ा होती है । अतः रसवाणिज्य और केशवाणिज्य दोनों त्याज्य हैं । अब विपवागिज्य के बारे में कहते हैं . विषास्त्रहलयन्त्रायोहरितालादिवस्तुनः । विक्रयो जीवितघ्नस्य विषवाणिज्य मुच्यते ॥१०९॥ अर्थ - शृंगिक, सोमल आदि विष, तलवार आदि शस्त्र, हल, रेहट, अंकुश, कुल्हाड़ी आदि तथा हरताल आदि वस्तुओं के विक्रय से जीवों का घात होता है। इसे विष-वाणिज्य कहते हैं। अब यन्त्रपीडनकर्म के सम्बन्ध में कहते हैं तिलेच-सर्षपैरण्डजलयन्त्रादिपीड़नम् । दलतलस्य च कृतिर्यन्त्रपीडा प्रकीर्तिता ॥११०॥ अर्थ- घाणी में पोल कर तेल निकालना, कोल्हू में पील कर इक्षु-रस निकालना, सरसों, अरंड आदि का तेल यन्त्र से निकालना, जलयन्त्र-रेहट चलाना, तिलों को दल कर तेल निकालना और बेचना, ये सब यंत्रपीड़नकर्म हैं। इन यन्त्रों द्वारा पोलने में तिल आदि
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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