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________________ २९४ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश रत्नकम्बल मांगा । इस पर भद्रा सेठानी ने कहा-"मैंने तो रत्नकम्बलों के आधे-आधे टुकड़े करके अपनी ३२ पुत्र-वधुओं (शालिभद्र की पत्नियों) को दे दिये हैं। उन्होंने उनसे पैर पोछ कर फेंक दिये होंगे । यदि राजा को उनकी खास जरूरत हो तो इस्तेमाल किये हुए दो टुकड़ों के रूप में रत्नकम्बल तो मिल जायेंगे । अतः राजा से पूछ कर ले जाना चाहो तो ले जाओ।' सेवक ने जा कर सारा वृत्तान्त राजा श्रेणिक से कहा। पास में बैठी हुई रानी चिल्लणा ने भी यह बात सुनी तो उनसे कहा-"प्राणनाथ ! देखिये ! है न हमारे में और शालिभद्र वणिक् में पीतल और सोने का-सा अन्तर ?" श्रेणिक राजा सुन कर कैंप गए। उन्होंने कुतूहलवश शालिभद्र को बुला लाने के लिए उस पुरुष को भेजा । सेवक ने भद्रा से जब यह बात कही तो उसने स्वयं राजा की सेवा में पहुंचने का कहा। भद्रासेठानी ने स्वयं राजा की सेवा में पहुंच कर सविनय निवेदन किया-'महीनाथ ! मेरा पुत्र इतना सुकुमार है कि वह कभी महल से बाहर कहीं जाता नहीं है। इसलिए आप मेरे यहाँ पधार कर शालिभद्र को दर्शन देने की कृपा करें ।' आश्चर्यचकित राजा श्रणिक ने शालिभद्र के यहां जाना स्वीकार किया । भद्रा ने राजा से कुछ समय ठहर कर पधारने की विनात की। घर आकर उसने अपने सेवकों द्वारा घर से ले कर राजमहल तक का सारा रास्ता और बाजार की दुकाने रंगबिरगे वस्त्रों और माणिक्यरत्नो मे सुसज्जित करवाई। दुकानों की शोभा ऐसी लगती थी, मानो देवो ने ही सुसज्जित की हों। राजमार्ग और बाजार की रौनक देखते हए राजा श्रेणिक शालि के यहां पहुंचे और विस्मयपूर्वक आंखें फाड़े हुए भद्रा के महल की अदभूत शोभा को निहारते हुए उसमें प्रविष्ट हुए। वह महल भी सोने के खंभों पर इन्द्रनीलमणियों के तोरण से सुशोभित था। उसका दरवाजा मोतियों के स्वस्तिकों की कतार से शोभायमान था। उसका आंगन भी उत्तमोत्तम रत्नों से जटित था। दिव्यवस्त्रों का चंदोवा वहां बंधा हआ था। सारा महल सुगन्धित द्रव्यों की धूप से महक रहा था। वह महल ऐसा मालम होता था, मानो पृथ्वी पर दूसग देवविमान हो। भद्रा राजा को चौथी मंजिल पर अपने महल में सिंहासन पर बिठा कर सातवीं मंजिल पर स्थित शालिभद्र के महल में पहुंची और उमसे कहा- "पुत्र ! अपने यहां अंणिक आए हैं, उन्हें देखने हेतु कुछ समय के लिए तुम नीचे चलो।" शालिभद्र ने कहा- 'मानाजी ! आप सब कुछ जानती हैं और जो चीज अच्छी लगती है, खरीदती हैं । मैं जा कर क्या करूंगा ? पसद हो तो महंगा-सस्ता जैसे भी मिले, खरीद लो और भंडार में रखवा दो।" मां ने वात्सल्यप्रेरित हो कर कहा-"बेटा ! यह खरीदने की वस्तु नहीं है । यह तो गजगृह का नरेश है. जो तम्हारा और मेरा सबका नाथ है।चला कर तमसे मिलने आया है. तो चलो।" माता के मद से 'नाथ' शब्द सुनते ही शालिभद्र के भावक हृदय में अन्तमंथन चलने लगा "क्या मेरे सिर पर भी नाथ है ? जब तक मैं विषय-भोगों को, महल एवं पत्नी आदि सांसारिक पदार्थों की गुलामी करता रहूंगा, तब तक निश्चय ही मेरे सिर पर नाथ रहेगा। धिक्कार है मुझे ! क्या मैं इन सव भोगों का गुलाम बना रहूंगा? मैं कब तक अपने सिर पर नाथ बनाए रख गा ? क्या मैं अपने अंदर पड़ी हुई असीम शक्ति का स्वामी नहीं हूं या नहीं बन सकता? मेरे पिताजी ने भी भगवान महावीर के चरणों में दीक्षित हो कर अपनी असीम शक्तियों को जगाया था, मैं भी सर्प के फनों के समान भयंकर भोगों को तिलांजलि दे कर शीघ्र ही भ. महावीर के चरणों में दीक्षित हो कर अपना स्वामी स्वयं बनूंगा, अपने अन्दर सोई हुई अनन्तशक्ति को जगाऊंगा।" यों संवेगपूर्वक चिन्तन करता हुमा शालिभद्र माता के अत्याग्रह से अपनी समस्त पत्नियों के साथ श्रेणिक राजा के पास आया । उसने राजा को प्रणाम किया। श्रेणिक राजा ने आते ही शालिभद्र को पुत्र के समान छाती से लगाया, वात्सल्यवश उसका मस्तक सूघा और अपनी गोद में बिठा कर प्यार से उसके सिर पर हाथ फिराया। राजा की गोद में बैठा हूमा शालिभद्र कारागार
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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