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________________ सुपात्रदान से दरिद्र संगम ग्वाला श्रेष्ठिपुत्र शालिभद्र बना २९३ करते करते उसका शरीर छूट गया । मुनिदान के प्रभाव से संगम का जीव राजगह नगर में गोभद्र सेठ की पत्नी भद्रा के गर्भ में आया । भद्रा सेठानी ने स्वप्न में शालि (धान्य) से लहलहाता और पकी हुई बालें लगा हा खेत देखा । अपने पति से सेठानी ने स्वप्नवृत्तान्त कहा। सेठ ने सुना तो हर्षित हो कर कहा - प्रिये ! यह शुभस्वप्न तुम्हारे पुत्र होने का सूचक है। भद्रा सेठानी को कुछ दिनों बाद दोहद पैदा हया कि "मैं अनेक बार दान-धर्म के कार्य करूं।"भद्रबुद्धि गोभद्र सेठ ने भी उसे सहर्ष पूर्ण कि या। भद्रा ने समय पूर्ण होने पर अपनी कान्ति से मातृ-मुख को विकसित करने वाले ठीक वैसे ही एक पुत्ररत्न को जन्म दिया, जैसे पर्वतभूमि वैडूर्यरत्न को जन्म देती है। शुभमुहतं में माता-पिता ने स्वप्न के अनुसार पुत्र का नाम 'शालिभद्र' रखा। पांच धायों के संरक्षण में बालक का लालन-पालन होने लगा। चन्द्रमा की तरह क्रमशः बढ़ते हुए बालक जव आठ वर्ष का हुआ तो माता-पिता ने उसे कलाचार्य के यहां भेज कर विद्याओं और कलाओं का अभ्यास कराया। यौवन को देहली पर पैर रखने पर शालिभद्र भी युवतीजवल्लभ बना । अब शालिभद्र अपने हमजोली मित्रों के साथ क्रीडा करता हुआ ऐसा प्रतीत होता था, मानो दूसरा ही प्रद्य म्नकुमार हो । नगर के कई मेठों ने आ कर भद्रापति श्रीगोभद्रसेठ के सामने अपनी-अपनी कुल ३२ कन्याएं शालिभद्र को देने का प्रस्ताव रखा और स्वीकार करने की प्रार्थना की, जिसे गोभद्रसेठ ने सहर्ष स्वीकार कर ली । तत्पश्चात् गोभद्र सेठ ने शुभमुहूर्त में खूब धूमधाम से उन सर्वलक्षणसम्पन्न ३२ कन्याओं के साथ शालिभद्र का विवाह किया। विवाह के पश्चात् शालिभद्र अपने मनोहर महल में उन ३२ कन्याओं के साथ आमोद-प्रमोद करते हुए ऐसा लगता था मानो इन्द्र शची आदि के साथ अपने मनोहर विमान में आमोद-प्रमोद कर रहा हो। उस विलासपूर्ण मोहक वातावरण के आनन्द में डूबे हुए शालिभद्र को यह पता ही नहीं चलता था, कब सूर्योदय हुआ और कब रात बीती ! उसके लिए भोगविलास की समग्र सामग्री माता-पिता स्वयं जुटाते थे। समय आने पर गोभद्रसेठ ने अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति और घरबार, कुटुम्ब वगैरह छोड़ कर भगवान महावीर के चरणों में मुनिदीक्षा ले ली। संयम की अराधना करते हए अन्तिम समय निकट जान कर उन्होंने अनशन ग्रहण किया और समाधिमरणपूर्वक आयुष्य पूर्ण करके देवलोक में पहुंचे। वहां अवधिज्ञान से शालिभद्र को अपना पुत्र जान कर उसके पुण्य से आकर्षित एवं पुत्रवात्सल्य से ओतप्रोत हो कर गोभद्रदेव प्रतिदिन उसके तथा उसकी बत्तीस पत्नियों के लिए दिव्य वस्त्र-आभूषण आदि अर्पित करता था। मनुष्योचित जो भी कार्य होता, उसे भद्रा सेठानी पूर्ण करती थी। यह सब भोगसामग्री पूर्वकृत दान के प्रभाव से मिली थी। एक बार कुछ विदेशी व्यापारी रत्नकम्बल ले कर राजगह में बेचने के लिए आये। राजा श्रेणिक को उन्होंने वे रत्नकम्बल दिखाये, लेकिन बहुत कीमती होने से उसने खरीदने से इन्कार कर दिया। निराश हो कर व्यापारी वापिस लौट रहे थे कि शालिभद्र की माता भद्रा सेठानी ने उन्हें अपने यहां बुलाया और उन्हें मुंहमांगी कीमत दे कर सब के सब रत्नकम्बल खरीद लिए। जब चिल्लणा रानी को पता लगा कि राजा ने एक भी रलकम्बल नहीं खरीदा ; तब उसने श्रेणिक राजा से कहा'प्राणनाथ ! चाहे वह महामूल्यवान् हो, फिर भी एक रत्नकम्बल तो मेरे लिए अवश्य ही खरीद लीजिए।' अतः श्रेणिक राजा ने उन व्यापारियों से पहले कही हुई कीमत में ही एक रत्नकम्बल दे देने को कहा । इस पर व्यापारियों ने कहा-"राजन् ! वे सब रत्नकम्बल अकेली भद्रा सेठानी ने ही खरीद लिये हैं। अब हमारे पास एक भी रत्नकम्बल नहीं है।" श्रेणिकनृप ने एक कुशल सेवक को मूल्य दे कर भद्रा सेठानी से एक रत्नकम्बल खरीद कर ले आने के लिए भेजा। उसने भद्रा सेठानी से खरीदे हुए मूल्य में एक
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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