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________________ कुपात्र और अपात्र को छोड़ कर पात्र और सुपात्र को दान देना सफल और सुफलवान है २९१ परिग्रह में मशगूल, कदापि संतोष धारण न करने वाले, मांसाहारी, शराबी, अतिक्रोधी, लड़ाई-झगड़े करने-कराने में आनन्दित रहने वाले, केवलकुशास्त्रपाठक, सदा पण्डितम्न्मय, तत्त्वतः नास्तिक व्यक्ति अपात्र माने गये हैं । इस प्रकार कुपात्र और अपात्र को छोड़ कर मोक्षाभिलापी, सुबुद्धिशाली, विवेकी आत्मा पात्र को ही दान देने की प्रवृत्ति करते हैं। पात्र को दान देने से दान सफल होता है, जबकि अपात्र या कुपात्र को दिया गया दान सफल नहीं होता। पात्र को दान करना धर्मवृद्धि का कारण है, जबकि अपात्र को दान अधर्मवृद्धि का कारण है। सर्प को दूध पिलाना जैसे विषवृद्धि करना है, वैसे ही कुपात्र को दान देना भववृद्धि करना है । कड़वे तुम्बे में मधुर दूध भर देने पर वह दूषित एवं पीने के अयोग्य हो जाता है, वैसे ही कुपात्र या अपात्र को दिया गया दान भी दूपित हो जाता हैं । कुरात्र या अपात्र को समग्र पृथ्वी का दान भी दे दिया जाय तो भी वह दान फलदायक नहीं होता, इसके विपरीत, पात्र को श्रद्धापूर्वक लेशमात्र (एक कौरभर) आहार दिया जाय तो भी वह महाफलदायी होता है। अतः मोक्षफलदायी दान के विषय में पात्र-अपात्र का विचार करना आवश्यक होता है । परन्तु तत्त्वज्ञानियों ने दया, दान करने का निषेध कहीं भी नहीं किया। पात्र और दान, शुद्ध और अशुद्ध; यों चार विकल्प (भंग) करने पर 'पहला विकल्प (पात्र भी शुद्ध, और दान भी शुद्ध) शुद्ध है । दूसरा विकल्प (पात्र शुद्ध, किन्तु दान अशुद्ध) अधंशुद्ध है, तीसरा विकल्प (पात्र अशुद्ध, मगर दान शुद्ध) भी अर्धशुद्ध है, और चौथा विकल्प (पात्र और दान दोनों अशुद्ध) पूर्णतया अशुद्ध है । वास्तव में देखा जाय तो प्रथम विकल्प के सिवाय शेष तीनों विकल्प एक तरह से, विचारशून्य और निष्फल हैं।' दान देने से भोगों की प्राप्ति होती है; यह विकल्प भी अशुद्ध दान का प्रतीक होने से विचारशन्य है। यद्यपि योग्य पात्र को दिये गये दान का फल शुद्ध भोग की प्राप्ति है, परन्तु वह दान भोगप्राप्ति की कामना से किया गया दान न होने से शुद्ध ही है, और सचमुच दान का केवल भोगप्राप्तिरूपी फल भी कितना तुच्छ और अल्प है ! शुद्ध दान का मुख्य और महाफल तो मोक्षप्राप्ति है । जैसे खेती करने का मुख्य फल तो धान्यप्राप्ति है, घास प्राप्तिरूपी फल तो आनुषंगिक और अल्प है ; वैसे ही पात्र को दिये गए शुद्ध दान का मुख्य फल भी मोक्षप्राप्ति है, भोगप्राप्तिरूप फल तो अल्प और आनुषगिक है। पात्र को शुद्ध दानधर्म से इसो चौबीसी में प्रथम तीर्थकर के प्रथम भव में धन्य सार्यवाह ने सम्यक्त्व (बोधिबीज) प्राप्त कर मोक्षरूपी महाफल प्राप्त किया। तीर्थकर ऋषभदेव को प्रथम पारणे पर जिस राजभवन में भिक्षा दी गई थी, उस पर प्रसन्न हो कर देवों ने तत्काल पुष्पवृष्टि की और 'अहो दानं' की घोषणा की। इस प्रकार अतिथिसंविभागवत के सम्बन्ध में काफी विस्तार से कह चुके । अतः देय और अदेय, पात्र और अपात्र का विवेक करके यथोचित दान देना चाहिए। यद्यपि विवेकी श्रद्धालुओं को सुपात्रदान देने में साक्षात् या परम्परा से मोक्षफल प्राप्त होता है; तथापि पात्रदान तो हर हालत में भद्रिकजीवों के लिए उपकारक है, इस दृष्टि से पात्रदान के प्रासंगिक फल का वर्णन करते हैं पश्य संगमको नाम सम्पदं वत्सपालकः चमत्कारकरी प्राप मुनिदानप्रभावतः ॥१८॥ अर्थ-देखो, बछड़े चराने वाले (ग्वाले) संगम ने मुनिदान के प्रभाव से आश्चर्यजनक चमत्कारी सम्पत्ति प्राप्त करली।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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