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________________ २६० योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश को मुक्ति दिलाने वाला हो तो फिर पुत्र तपस्या करे उसके फलस्वरूप उसके पिता की भी मुक्ति हो जानी चाहिए | गंगानदी या गया आदि तीर्थों में दान करने से पितर तर जाते हैं, तो फिर झुलसे हुए पेड़ में हरे-भरे पत्त अंकुरित करने के लिए उसे सिंचन करना चाहिए ! इस लोक में लकीर का फकीर ( गतानुगतिक ) बन कर कोई जो कुछ भी मांगे, उसे धर्म या पुण्य की बुद्धि से तो नहीं दिया जाना चाहिए। वास्तव में पुण्य या घर्म तो ऐसे त्यागी को चारित्रवर्द्धक, संयमोपकारक चीजों के दान देने से होता है । और पुण्य या भाग्य प्रबल हों, तभी किसी को कुछ मिलता है। पुण्य न हो तो किसी से भी कुछ मांगना या याचना करना वृथा है। सोने-चांदी की देवमूर्ति बना कर मनौती करने से वह देवबिम्ब उसकी रक्षा करेगा, यह महान् आश्चर्यजनक बात है। क्योंकि आयुष्य के क्षण पूर्ण होने पर कोई भी देवता किसी की रक्षा नहीं कर सकते । बड़ा बैल हो या बड़ा बकरा, यदि उसे मांसलोलुप श्रोत्रिय ब्राह्मण को दोगे तो उससे दाता (देने वाले ) और लेने वाले दोनों को नरककूप में गिरना पड़ेगा । धर्मबुद्धि से दान देने वाला अनजान दाता कदाचित् उस पाप से लिप्त न हो, लेकिन दोष जानने पर भी लेने वाला मांसलोलुप तो उस पाप से लिप्त होता ही है । अपात्र जीव को मार कर जो पात्र का पोषण करता है, वह अनेक मेंढकों को मार कर सर्प को खु करने के समान है । जिनेश्वरों का कथन है कि त्यागी पुरुषों को स्वर्णगिरि का दान नहीं देना चाहिए । इसलिए सुज्ञ एवं बुद्धिमान मनुष्य को सुपात्र को कल्पनीय महारादि ही दान के रूप में देना चाहिए । ज्ञान-दर्शन- चारित्ररूपी रत्नत्रय से युक्त, पांच समितियों और तीन गुप्तियो के पालक, महाव्रत के भार को उठाने में समर्थ परिपहों एवं उपसर्गों की शत्रुसेना पर विजय पाने वाले महासुभट साधुसाध्वियों को जब अपने शरीर पर भी ममता नहीं होती, तब अन्य वस्तुओं पर तो ममता होगी ही कैसे ? धर्मोपकरणों के सिवाय सर्वपरिग्रहत्यागी, ४२ दोषों से रहित निर्दोषभिक्षाजीवी, शरीर को केवल धर्मयात्रा में लगाने के लिए ही आहारादि लेने वाले, ब्रह्मचयं की नौ गुप्तियों से विभूषित, दांत कुरेदने करने के लिए तिनके जैसी परवस्तु के प्रति भी लालसा नहीं रखने वाले; मान-अपमान में, लाभ-हानि में, सुख-दुःख में, निन्दा - प्रशंसा में, हर्ष- शोक में समभावी, कृत, कारित (करना, कराना) और अनुमोदन तीनों प्रकारों से आरम्भ से रहित, एकमात्र मोक्षाभिलाषी, सयमी साधुसाध्वी ही उत्कृष्ट सुपात्र हैं । सम्यक्त्वसहित बारह व्रतों के धारक या उससे कम व्रतों के धारक देशविरतिसम्पन्न एव साधुधमं की प्राप्ति के अभिलापी सद्गृहस्थ मध्यम पात्र माने जाते हैं, और केवल सम्यक्त्व-धारक, अन्य व्रतों के पालन करने या ब्रह्मचर्यव्रत धारण करने में असमर्थ एव तीर्थ की प्रभावना करने में प्रयत्नशील व्यक्ति जघन्य पात्र समझ जाते हैं । कुशास्त्रश्रवण से उत्पन्न हुए वैराग्य के कारण परिग्रह से रहित, ब्रह्मचर्यप्रेमी, चोरी, असत्य हिमा आदि पापों से दूर, अपनी गृहीत प्रतिज्ञा के पालक, मौनधारक, कंदमूलफलाहारी, भिक्षाजीवी, जमीन पर या खेत में पड़े हुए दानों को इकट्ठा करके उनसे निर्वाह करने वाले, पत्रभोजी, गैरिकवस्त्रधारी या निर्वस्त्र, नग्न, शिखाधारी या जटाधारी, मस्तकमुडित, एकदंडी या त्रिदंडी मठ या अरण्य में निवास करने वाले, गर्मियों में पंचाग्नितप के साधक, शर्दी में शोत सेवन करने वाले, शरीर पर भस्म धर्मपालक, किन्तु मिथ्यादृष्टि माने वाले, खोपड़ी या हड्डी आदि के आभूषण धारक, अपनी समझ से शास्त्रदूषित, जिनधर्मद्वेषी, विवेकमूढ़, कुतीर्थी सुपात्र नहीं माने जाते में तत्पर असत्यवादी, परधनहरणकर्ता, गधे के समान प्रबल कामासक्ति । प्राणियों के प्राणहरण करने में निमग्न, रात-दिन आरम्भ
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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