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________________ १४ योगशास्त्रा प्रथम प्रकाश तकार-धोंकार के भेदों से मेघ-समान गंभीर आवाज वाले तीन प्रकार के मृदंग बजा रहीं थीं। कितनी देवांगनाएं तो आकाश और धरती पर चलती हुई आश्चर्य पैदा करने वाले नये-नये हावभाव से कटाक्ष करती हुई नृत्य करने लगीं। कितनी ही अंगनाएं तो अंग मोड़ती व बलखाती हुई अभिनय करते समय टूटते हुए कचुक और शिथिल हुए केशपाश को बांधने का अभिनय करती हुई अपने बगलें बताती थीं । कई अपने लम्बे पैर के अभिनय के बहाने मनोहर गोरोचन की लेप लगी हुई और गौर वर्ण वाली, अपनी जधा के मूल भाग को बार-बार बताती थीं। कितनी ही देवियां घाघरे की ढीली हुई गांठ को मजबूत बाँधने का नाटक करती हुई नाभिमंडल दिखाती थीं। कई हस्तिदंत-समान हाथ के अभिनय के बहाने से अग के गाढ़ आलिंगन करने का इशारा करती थीं। कतिपय अंगनाएँ तो कमर के नीचे के अन्दर के वस्त्र का नाड़ा मजबूती से बांधने के बहाने ऊपर की साड़ी हटा कर अपने नितम्ब बताने लगीं, कई सुलोचना देवियाँ अंग को मोड़ने के बहाने छाती पर पुष्ट और उन्नत स्तनों को लम्बे समय तक बताने लगी, और कहने लगी कि 'यदि आप वीतराग हैं, तो हम लोगों में राग क्यों पैदा करते हैं ? शरीर से निरपेक्ष हैं तो हम लोगों को अपनी छाती क्यों नहीं अर्पण कर देते ? और यदि आप दयालु है, तो फिर अचानक खीचे हुए धनुष्यरूप अस्त्र वाले कामदेव से हमारी रक्षा क्यों नहीं करते ? हमारी प्रेम की लालसा पर कौतुक से आपके द्वारा तिरस्कार करना कुछ समय तक तो ठीक है, परन्तु मृत्युपर्यन्त इस हठ को पकड़े रखना योग्य नहीं है। और कितनी ही देवियां यों कहने लगीं- "स्वामिन् ! कठोरता का परित्याग कर अपना मन कोमल बनाओ। हमारा मनोग्य पूर्ण करो : हमारी प्रार्थना की उपेक्षा न करो।" इस तरह देवांगनाओ के गीत, नत्य, वाद्य-विलास, हावभाव तथा प्रेम की मीठी-मीठी बातों से जगद्गुरु तिलभर भी नहीं डिगे। इस तरह अनेकों अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग सहन करते-करते सारी गत बीत गई। इसके बाद असुरधर्मी संगमदेव ने छह महीने तक प्रभु को शुद्ध आहार मिलने में विघ्न उपस्थित किये और तरह-तरह के उपद्रव करता गया। किन्तु अन्त में हार-थक कर वह भगवान् से बोला"भट्टारक ! आप सुख से रहो और इच्छानुसार भ्रमण कगे; अब मै जाता हूं।" इस प्रकार वह भारी पापकर्म बांध कर छह महीने के अन्त में गया। भगवान का करुणाद्रं हृदय पसीज उठा कि इस प्रकार के पापकर्म से यह बेचारा कहाँ जायेगा? इसकी क्या गति होगी? मेरे जैसा तारक भी इसे तार नहीं सका ! इस प्रकार चिन्तन करते-करते उनकी आंख करुणा के आंसुओं से आई हो गई। इस तरह इष्टदेव को नमस्कार कर मोक्षमार्ग के कारणभूत योग के सम्बन्ध में कहने की इच्छा से अब वह योगशास्त्र प्रस्तुत करते हैं:-- श्रुताम्भोधेरधिगम्य, सम्प्रदायाच्च सद्गुरोः । स्वसंवेदनतश्चापि, योगशास्त्रं विरच्यते ॥४॥ अर्थ सिद्धान्तरूप समुद्र से, सद्गुरु-परम्परा से और स्वानुभव से जान कर मैं योगशास्त्र की रचना करता हूँ। आशय योगशास्त्र की रचना का निर्णय प्रस्तुत श्लोक में बताया है कि योगपद का निर्णय (ज्ञान) करने के बाद शास्त्ररचना करना उचित है। इसलिये योग के निर्णय के लिये तीन हेतु जानना-(१) शास्त्र से (२) गुरु-परम्परा से
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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