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________________ संगमदेव द्वारा अन्तिम उपसर्ग ३ अच्छा होगा कि इसके प्राणनाश का कोई उपाय करूं। तभी इसका ध्यानभंग होगा, अन्यथा नहीं। यों विचार कर अधम देव ने एक हजारपल वजन वाले लोहे का ठोस वजमय कालचक्र बनाया और रावण ने जैसे कलाश-पर्वत को उठाया था; वैसे ही इस देव ने उसे उठाया। पृथ्वी को लपेटने के लिए मानो यह दूसरा वेष्टन तैयार किया हो, ऐसे कालचक्र को ऊपर उठा कर प्रभु पर फैका । निकलती हई ज्वालाओं से ममस्त दिशाओं को भयंकर बनाता हआ, समुद्र में बड़वानल के समान वह प्रभ पर गिरा । बड़े-बड़े पर्वतों को चूर्ण करने में समर्थ उस चक्र के प्रभाव से भगवान् घुटने तक जमीन में छम गए। ऐसी स्थिति में भी भगवान विचार करके लगे कि विश्व के ममग्र जीवों को तारने का अभिलापी होने पर भी मैं इस बेचारे के लिए मंसार परिम्रमण कराने का निमित्त बना हूं। संगमदेव ने विचार किया- "अहो ! मैंने कालचक्र के प्रयोग का अन्तिम उपाय भी अजमाया, लेकिन यह तो अभी भी जीता जागता बैठा है। अतः अब गरव-अस्त्र के अलावा और कोई उपाय करना चाहिए । सम्भव है, अनुकूल उपमर्ग मे यह किसी प्रकार विचलित हो जाय ।" ऐसी नीयत से विमान में बैठे-बैठे वह प्रभु के आगे आ कर कहने लगा हे महर्पि, ! तुम्हारे सत्त्व गे और प्राणों की बाजी लगा कर प्रारम्भ किए गए तप के प्रभाव से मैं तुम पर संतुष्ट हुआ हूँ। अत: अब छोड़ो, इस शरीर को क्लेश देने वाले तप को। ऐसे तप से क्या लाभ ? तुम जो चाहो सो मांग लो। बोलो, मैं तुम्हें क्या दे दू? इस विषय में जरा भी शंका मन वरना ; तुम्हारा जो मनोरथ होगा, पूर्ण किया जायगा । कहो तो मैं तुम्हें इस शरीर द्वारा ही स्वर्ग प्राप्त करा दूं? या कहो तो अनन्न-अनन्त जन्मों के किये हुए कर्मों से मुक्त करके एकान्त परमानन्द-प्राप्ति-स्वरूप मोक्ष मैं तुम्हें प्राप्त करा दूं? अथवा समस्त राजा तुम्हारी आज्ञा शिरोधार्य करें, ऐसा अक्षय-सम्पत्ति वाला साम्राज्य तुम्हें दिला दूं ? इस तरह की देव की प्रलोभनमरी बातों से भी जब प्रभु का मन चलायमान नहीं हुआ. और उसे कोई प्रत्युत्तर प्रभ से नहीं मिला तो पापी देव ने फिर यों विचार किया कि इसने मेरे सारे प्रयोगों और शक्तियों के असफल बना दिया। अब तो केवल एक ही अमोघ उपाय शेष रह जाता है, वह है काम-शास्त्र का। उसे भी अजमा कर देख ले। क्योंकि काम के अस्त्र के ममान कामिनियों की दृष्टि पड़ते ही बड़े-बड़े योगिपुरुषों तक का भी पुगपत्व खंडित हो जाता है ।' चित्त में यों निश्चय करके उसने देवांगनाएं और उनके विलाग में सहायक छह ऋतुएं बनाई। साथ ही उन्मन कोकिला के मधुर शब्दों से गूंजायमान कामदेव नाटक की मुख्य नटी के समान वसन्त-लक्ष्मी वहां सुशोभित होने लगी। विकसित कदम्बपुष्पों के पराग से मुग्व की सुगन्ध फैलाती हुई दिशा-बधुओं ने कला सीखी हुई दासी के समान ग्रीष्म ऋतु शोभायमान होने लगी। कामदेव के राज्याभिषेक में मंगलतिलक-रूप केवड़े के फूल के बहाने से रोमांचित सर्वा गी वर्षाऋतु भी शोभायमान हुई। नये-नये कमलों के बहाने से हजागें नयन वाली बन कर अपनी उत्कृष्ट सम्पत्ति को दिखाती हुई शरद् ऋतु भी सुशोभित होने लगी। मानो श्वेत अक्षर के समान ताजे मोगरे की कलियों से कामदेव की जयप्रशस्ति लिख रही हो; इस प्रकार हेमन्त ऋतु भी उपस्थित हुई । मोगरा और मिन्दुवार के पुष्पों से गणिका की तरह आकर्षित करने वाली हेमन्त के समान सुरभित शिशिर ऋतु ने भी अपनी शोभा बढ़ाई। इस तरह चारों तरफ सारी ऋतुएँ प्रगट हो गई । तब कामदेव की ध्वजा के ममान देवांगनाएं प्रगट हुई। उन्होंने भगवान के पास अपने अंगोपांग खोल कर दिखाते हुए कामदेव को जीतने के मंत्रास्त्र के समान संगीत की तान छेड़ी। कई देवांगनाएं लय के क्रम से गन्धारराग से मनोहर वीणा बजाती हुई गीत गाने लगीं। और उलटे-सीधे क्रम से ताल व्यक्त करती हुई वे अपनी पूरी कला लगा कर मधुरतापूर्वक वीणा बजा रही थीं। कितनी ही देवागनाएँ प्रकटरूप में
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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