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________________ पौषधवत में सुदृढ़ चुलनीपिता श्रावक २८३ कर अन्य धूप का, (१२) ईधन से गर्म किये पेयपदार्थ के अतिरिक्त अन्य पेय द्रव्यों का, (१३) खाजा और घेवर के सिवाय अन्य खाद्यद्रव्यों का, (१४) कलम्बशाली (एक किस्म के चावल) ओदन के सिवाय अन्य सभी ओदनों का, (१५) मटर, मूग एवं उड़द की दाल के अलावा अन्य सभी दालों (सूपों) का, (१६) शरत्कालनिष्पन्न, गाय के घी के सिवाय अन्य सब घृतों का, (१७) पालक और मंडूकी के शाक के सिवाय अन्य सागों का, (१८) इमली और कोकम के सिवाय अन्य सभी खटाइयों का, (१९) वर्षाजल के अलावा अन्य पेयजल का, (२०) पांच प्रकार के द्रव्यों से सुगन्धित ताम्बूल के सिवाय अन्य मुखवास का त्याग किया। इसके बाद उसने आर्तध्यान रौद्रष्यान, हिंसा के उपकरणप्रदान, प्रमादाचरण, पापकर्मोपदेश या प्रेरणा ; इन पंचविध अनर्थदण्डों का त्याग किया। चार शिक्षावत भी अंगीकार किए। इस प्रकार भगवान महावीर से सम्यक्त्वसहित समस्त-अतिचाररहित श्रावकव्रत सम्यक प्रकार से ग्रहण किये और भगवान को नमस्कार करके वह अपने घर गया। वहां अपनी धर्मपत्नी से भी उसने खुद ने अंगीकार किये हुए श्रावकधर्म का जिक्र किया। पत्नी ने भी उन श्रावकव्रतों को ग्रहण करने की इच्छा से अपने पति चुलनीपिता से आज्ञा मांगी। पति की आज्ञा पा कर श्यामा उसी समय धर्मरथ में बैठ कर भगवान् की सेवा में पहुंची और उसने भी प्रभु को वन्दना-नमस्कार करके श्रावकधर्म के व्रत ग्रहण किये । उसके चले जाने के बाद गणघर गौतम स्वामी ने भगवान् महावीर से नमस्कार करके विनयपूर्वक पूछा-'प्रभो ! यह चुलनीपिता अनगारधर्म को क्यों नहीं स्वीकार कर सका ?" भगवान् ने कहा- "यह अनगारधर्म को अंगीकार नहीं करेगा। परन्तु श्रावकधर्म में ही तल्लीन हो कर आयुष्य पूर्ण होने पर मर कर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न होगा । वहाँ अरुणाभविमान में चार पल्योपम की स्थिति वाला देव बनेगा। और वहाँ से च्यव करके यह महाविदेहक्षेत्र में मनुष्य जन्म पा कर निर्वाणपद को प्राप्त करेगा।" जीवन के सन्ध्याकाल में चुलनीपिता ने अपने ज्येष्ठपुत्र को घर और परिवार का सारा भार सौंप दिया और स्वयं निवृत्त हो कर धर्मध्यान में रत रहने लगा। एक बार चुलनीपिता पौषधशाला में पौषधव्रत ले कर आत्मचिन्तन में लीन था। उस दौरान एक मायावी मिथ्यात्वी देव रात के समय परीक्षा की दृष्टि से उसके पास आया और विकराल रूप बना कर हाथ में नंगी तलवार लिए गर्जती हुई भयंकर आवाज में कहने लगा-'अरे ! अनिष्ट के याचक श्रावक ! तूने यह क्या धर्म का ढोंग कर रखा है ? मैं आदेश देता हूं-श्रावक व्रत का यह दंभ छोड़ दे ! अगर तू इसे नहीं छोड़ेगा, तो तेरे ही सामने इस तलवार से तेरे बड़े लड़के के कुम्हड़े के समान टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा। और तेरे देखते ही देखते, उसके मांस के टुकड़े कड़ाई में खोलते हुए तेल में डाल कर तलूगा और उसी क्षण शूल में बींध कर उन्हें खाऊंगा । तथा उसका खून भी तेरे सामने ही पीऊंगा। जिसे देख कर तू स्वयं अपने प्राण छोड़ देगा।' "देव की इस प्रकार की भयंकर ललकार सुन कर भी बादलों की गड़गड़ाहट एवं गर्जनतर्जन से जैसे सिंह कंपायमान नहीं होता, वैसे चुलनीपिता भी देव की सिंहगर्जना से जरा भी भयभीत नहीं हुआ । चुलनीपिता को अडोल देख कर देव बार-बार डरावनी सूरत बना कर डराने के लिए धमकियां देता रहा, मगर चुलनीपिता ने देव के सामने देखा तक नहीं, जैसे भोंकते हुए कुत्ते के सामने हाथी नहीं देखता । इसके बाद निर्दय करात्मा देव ने कृत्रिमरूप से बनाए हुए चुलनीपिता के बड़े पुत्र को उसके सामने पशु की तरह तलवार से काट डाला। और फिर उसके टुकड़े-टुकड़े करके धधकते हुए तेल की कड़ाही में डाल दिये। कुछ टुकड़े तवे पर सेकने लगा। जब वे पक गए तो उन्हें तीखे शूल से बींध कर वह देव खाने लगा। तत्त्वज्ञ चुलनीपिता ने यह सारा उपसर्ग (कष्ट) समभाव से सहन किया। सच है, अन्यत्वमावना के धनी
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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