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________________ २८२ योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश का जन्म हुमा । जगदानन्ददायी चन्द्रमा की सहचारिणी जैसे श्यामा (रात्रि) है, वैसे ही उसके अनुरूप श्यामा नामकी उसकी रूपवती सहधर्मिणी थी। चुलनीपिता के यहाँ कुल २४ करोड़ सोनयों की सम्पत्ति थी-आठकरोड़ स्वर्ण मुद्राए जमीन में खजाने के रूप में सुरक्षित रखी हुई थीं, आठ करोड़ मुहरें ब्याज के रूप में लगाई हुई थी और आठ करोड से उसका व्यवसाय चलता था। उसके यहाँ दस-दस हजार के प्रत्येक गोकुल के हिसाब से ८ गोकुल थे। उसके घर में भी ओर प्रकार की संपत्ति थी। इस तरह वह काफी जमीन-जायदाद का मालिक था। एक बार वाराणसी के बाहर कोष्ठक उद्यान में चरमतीर्थकर श्रमण भगवान् महावीरस्वामी विचरण करते हुए पधारे । भगवान् के चरणकमलों में वन्दनार्थ सुरअसुरसहित इन्द्र भी आए और नगरी का राजा जितशत्रु भी पहुंचा। चुलनीपिता ने जब यह सुना तो मन में आल्हादित हो कर धर्मसभा के लिए उचित वस्त्राभूषण पहन कर पैदल चल कर वह भी त्रिलोकीनाथ भगवान के चरणों में वन्दनार्थ पहुंचा। भगवान् को वन्दनानमस्कार करके धर्मसभा मे बैठ कर परमभक्तिपूर्वक करबद्ध हो कर उसने भगवान् का प्रवचन सुना। प्रवचन समाप्त होने पर चुलनीपिता न विनयपूर्वक नमस्कार करके प्रभुचरणों में निवेदन किया-'स्वामिन् ! सूर्य जैसे केवल जगत् को प्रकाश देने के लिए ही भ्रमण करता है, इसके सिवाय उसका कोई प्रयोजन नहीं है; वैसे ही आप भी मुझसरीखे लोगों को प्रतिबोध देने के लिए ही भूमंडल पर विचरण करते हैं। संसार में और सभी के पास तो जा कर याचना की जाती है, तब कोई देता है. कोई नहीं देता ; परन्तु आप तो बिना ही याचना किये नि.स्पृहभाव से सम्मुख जा कर धर्मदेशना देते हैं । इसमें आपकी अहेतुकी कृपादृष्टि ही कारण है । मैं जानता हूं कि आपत्री के पास मुझे अनगारधर्म स्वीकार करना चाहिए ; लेकिन अभी इस अभागे मे इतनी योग्यता, क्षमता और शक्ति नहीं कि इतना उच्च चारित्र का भार उठा सके ; वे धन्य हैं, जो पूर्ण चारित्र का भार उठाते हैं, दीक्षा लेते हैं । आपश्री से श्रावकधर्म ग्रहण करने की मेरी भावना है। आपसे प्रार्थना है कि कृपया मुझे श्रावकधर्म प्रदान कीजिए।" 'समुद्र जल से परिपूर्ण होता है, लेकिन घड़ा अपनी योग्यतानुसार ही उसमें से जल ले सकता है।' भगवान् ने उत्तर में कहा .. "देवानुप्रिय ! तुम्हें जैसा सुख हो, वैसा करो। परन्तु धर्मकार्य में जरा भी विलम्ब मत करो।" तत्पश्चात् चुलनीपिता ने भगवान से १२ व्रत इस प्रकार ग्रहण किए । स्थूल हिंसा, स्थूल असत्य, स्थूल अदत्तादान और अपनी पत्नी श्यामा के सिवाय तमाम स्त्रियों का त्याग किया, आठ करोड़ से अधिक स्वर्णमुद्राएं सुरक्षित निधि के रूप में, आठ करोड़ से अधिक व्यापार-धंधे में और आठ करोड़ से अधिक ब्याज के रूप में न रखने का नियम लिया। ५०० हलों से हो सके, इतनी खेती के लिए जमीन रखी। ५०० गाड़ियां परदेश में व्यापार के लिए, ५०० गाड़ियां भार ढोने के लिए रख कर इससे अधिक का उस महामति ने त्याग किया। उसने ४ बड़े जलयान से अधिक न रखने का भी नियम लिया। सातवें उपभोगपरिभोगपरिमाणवत में उसने २६ बोलों में से कुछ बोलों की मर्यादा इस प्रकार की -(१) शरीर पोंछने के लिए सुगन्धित काषायवस्त्र (तोलिया) के अतिरिक्त वस्त्र का, (२) महुड़े के पेड़ के हरे दतौन से अतिरिक्त दतौन का, (३) आंवले के फल के सिवाय फल का, (४) सहस्रपाक और शतपाक तेल के सिवाय अन्य तेल लगाने का, (५) गंधाढ्य के अलावा अन्य किसी वस्तु को शरीर पर मलने का, (६) आठ उष्ट्रिकाओं (मिट्टी के बड़े-बड़े घड़ों) से अधिक पानी स्नान के लिए इस्तेमाल करने का, (७) दो सूती कपड़ों से अधिक वस्त्र का, (क) केसर, अगर और चंदन के अलावा किसी वस्तु के विलेपन का, (९) कमलजातीय पुष्प के अतिरिक्त पुष्पों की माला का, (१०) काम के आभूषण और नामांकित अगूठी के सिवाय अन्य आभूषणों का, (११) तुरुष्क को छोड़
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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