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________________ २८० योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश पालिका को राजा के संकल्प का पता नही था, अतः उमने फिर दीपक में उड़ेल दिया। रात्रि पूर्ण हुई । प्रातःकाल होगया, पर राजा संकल्पानुसार कायोत्सर्ग में खड़ा रहा। रातभर की थकान से शरीर चूरचूर होकर अधिक व्यथा न मह सकने के कारण धडाम से गिर पड़ा। राजा का शरीर छूट गया। परन्तु अन्तिम समय तक समाधिभाव में रहने के कारण अशुभ कर्मों का क्षय हो जाने मे गजा मर कर स्वर्ग में गया। इमी प्रकार अन्य गहस्थ भी सामायिक व्रत अंगीकार करके समाधिभाव में स्थिर रहे तो वह अवश्य ही अशुभकमों का क्षय करके तत्काल सद्गति प्राप्त कर लेता है । यह है चद्रावतंसकनृप की कथा का हाद ! अब देशावकाशिक नामक द्वितीय शिक्षाव्रत के सम्बन्ध में कहते हैं दिग्व्रते परिमाणं यत्, तस्य संक्षेपणं पुनः। दिने रात्रौ च देशावकाशिकवतमुच्यते ॥४॥ अर्थ-दिग्वत में गमन की जो मर्यादा की हो, उसमें से भो एक अहोरात्रि के लिए संक्षेप करना देशावकाशिकवत कहलाता है। व्याख्या- दिग्वन नामक प्रथम गुणव्रत में दशों दिशाओ म गमन की जो मोमा (मर्यादा) निश्चित की हो, उसमें से भी पूरे दिनरातभर के लिए, उपलक्षण से पहर आदि के लिए विशेषरूप से संक्षेप करना देशावकाशिक व्रत कहलाता है। यहा दिग्व में प्रथमव्रत क संक्षप करने के मा५ सा लक्षण से दूसरे अणुव्रत आदि का भी संक्षेप समझ लना चाहिए। प्रत्येक व्रत के संक्षेप करने के लिए उमका प्रत्येक का एक-एक व्रत रखा जाता, तो व्रतों की संख्या बढ़ जाती, और व्रतों की शास्त्रोक्त १२ संख्या के साथ विरोध पैदा हो झाता।' अब तीसरे शिक्षाव्रत पौषधव्रत के विषय में कहते हैं--- चतुष्पा चतुर्थादि, कुव्यापारनिषेधनम् । ब्रह्मचयक्रियास्नानादित्यागः पौषधवतम् ॥१५॥ अर्थ-चार पर्व-दिनों में चतुर्थभक्त-प्रत्याख्यान आदि उपवासतप, कुप्रवृत्ति का त्याग, ब्रह्मचर्यपालन एवं स्नानभृगारादि का त्याग किया जाय, उसे पौषधव्रत कहते है। व्याख्या-अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या ये चार पर्वतिथियां कहलाता है। इन पर्वतिथियो में पौषधवन अंगीकार करना श्रावक के लिए विहित है। इस व्रत में उपवाम आदि तप के साथ सावध (पापमय) प्रवृत्ति को बंद करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, स्नानादि शरीर. संस्कार का त्याग; आदि शब्द से तेलमालिश, मेंहदी लगाना, चन्दनादि लेप करना, इत्रफूलेल आदि लगाना, सुगन्धित फूलों की माला अथवा मस्तक पर पुष्पहार धारण करना, बहुमूल्य, रंगविरंगे, भड़कीले वस्त्र, एव अलंकार पहनना, शरीर को शृंगार करके सुसज्जित करना, सुन्दर बनाना आदि बातो का त्याग भी समझ लेना चाहिए । इन निपिद्ध वस्तुओं का त्याग तथा ब्रह्मचर्य व तप का स्वीकार करके धर्म को पुष्ट करना, पौषधवत कहलाता है। वह पौषध दो प्रकार का होता है--देशपौषध और संबंपौषध । आहारपूर्वक पोषध देशपौषध होता है। किन्तु आहारसहित पौषध विविध विग्गई (विकृतिजनक पदार्थ) के त्यागपूर्वक आयम्बिल, एकासन या बेयासन से किया जाता है। पूरे दिनरातभर का पौषध चारों ही प्रकार के आहार के सर्वथा त्यागपूर्वक उपवाससहित होता है। इसमें दूसरे दिन सूर्योदय होने तक का प्रत्याख्यान होता है। देशतः (अंशतः) पाप-प्रवृत्तियों का त्याग देशपौषध कहलाता है। इसमें किन्हीं
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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