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________________ सामायिक में समाधिस्थ चन्द्रावतंसक का उदाहरण सामन्ती एवं मण्डलेश्वर गजाओं के स्पर्धापूर्वक आडबर के साथ मुनिजनों के दर्शनार्थ आ रहा हो तो लोग उसकी ओर उंगली उठा कर कहेंगे-यह महानुभाव श्रद्धाल धर्मात्मा है।' राजा या वैभवशाली व्यक्ति को मुनिदर्शन के लिए श्रदातर देख कर अन्य लोगों के मन में भी धर्म की भावना उमड़ती है। वे भी मोचते हैं हम भी कमी व उम तरह धम करेंगे ? अतः साधर्मीजन उक्त धर्मश्रद्धालु राजा को हाथ जोड़ कर प्रणाम करे, अक्षन आदि उछाल । उन लागो क नमस्कार के प्रत्युत्तर में राजा स्वयं भी धर्म की अनुमोदना कर . 'धन्य है, इस धर्म को , जिसकी ऐसी महान आत्मा सेवा करते हैं। इस प्रकार मर्वधारण द्वारा धर्म की प्रशंसा करवाते हुए राजा या महद्धिक व्यक्ति जिनमन्दिर या साधुसाध्वियों का जहा निवाम है। उम उपाश्रय में जाए । वहां जात ही छत्र, चामर, मुकुट, तलवार और जूत आदि राजांचन्हा को उतार कर फिर जिनवन्दन या माधु-साध्या-वन्दन कर । अगर राजा सामायिक करक उपाश्रय या जिनमन्दिर में जाएगा तो हाथी-धाड़े आदि उपाधि साथ में होगी। शस्त्र या सेना आदि होंग ! नागा यक में ऐसा करना उचित नहीं होगा। मान ली, सामायिक करके राजा पंदल चल कर जाः, तो भी अनचि है। यदि चुपचाप एसे ही गामान्य वप म या सामान्यजन की तरह श्रावकराजा जाए तो कोई बड़ा हो कर उमका सन्कार भी नहीं करेगा । अतः अत्यन्त विनीतभाव स यथाभद्रक हो कर सजा भी चला आए तो पहले म उसके बैठन क लिए आमन तैयार करना और दही सत्कार-पूजा करना : . जब तुम भी नहीं करना है। आचार्य महाराज तो पहले से ही उठ कर वही धू मन लग; ता: राणा के आने पर खड़े नहीं होना पड़े। क्योंकि उस सम्बन्ध में उठन, न उठने से कोई वाप नही लगा। यह केवल एक व्यवहार है। राजा या ऋाद्धमान बावकको इस विधि से आदरपूर्व. सामायिक करनी चाहिए । मामायिक में रहने स महानिरा होता है । इस ही दृष्टान्त द्वारा समझाते है सामायिकव्रतस्थस्य गृहिणोपि स्थिरात्मनः । चन्द्रावतंसकस्येव क्षायते कर्म संचितम् ॥८३॥ अथ -- गृहस्थ होने पर भी सामायिक-व्रत में स्थिर आत्मा के चन्द्रावतसक राजा को तरह पूर्वसचित कृत कर्म क्षीण हो जाते हैं । यह उदाहरण गुरुपरम्परा रो गम्य है । वह इस प्रकार है सामायिक में समाधिस्थ चन्द्रावतसक नृप लक्ष्मी के संकेतगृह के समान उज्ज्वल, इन्द्रपुरी की शोभा को मात करने वाला सकेतपुर नगर शा। वहां पृथ्वी के मुकुटसम दूसरे चन्द्रमा के समान जननयनआल्हादक 'चन्द्रावतंसक' राजा राज्य करता था। बुद्धिशाली राजा अपने देश की रक्षा के लिए शस्त्रधारण करता था, इसी प्रकार आत्मगुणों की रक्षा के लिए चार प्रखर एवं कठोर शिक्षाबत भी धारण किये हुए था । माघ महीन म एक बार रात को अपने निवासस्थान पर उसने सामायिक अगीकार को और ऐसा संकल्प करके कायात्स में खड़ा हो गया कि 'जब तक यह दीपक जलता रहेगा, तब तक मैं सामायिक में रहूंगा।' दीपक में तेल जब कम होने लगा तो उनकी शय्यापालिका दासी ने रात के पहले पहर में ही दीपक में यह सोच कर और तेल उड़ेल दिया कि स्वामी को कहीं अंधेरा न हो।' स्वामीभक्तिवश वह दूसरे पहर तक जागती रही और फिर उसने जा कर दीपक में पुनः तेल डाल दिया। दीपक लगातार जलता रहा । आः राजा ने तीहरे पहर तक अपने संकलन (अभिग्रह) के अनुसार कायोत्सर्ग चालू रखा । शय्या
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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