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________________ आर्तरौद्रध्यान का स्वरूप और पापोपदेशरूप अनर्थदण्ड २७३ कार्य करना पड़े, उसे अर्थदण्ड और बिना ही प्रयोजन के बेकार अपने या दूसरे के लिए हिंसादि आश्रवसेवन करना अनर्थदण्ड है। अब अपध्यान का स्वरूप और उसका परिणाम बनाते हैं वैरिघातो नरेन्द्रत्वं पुरवाताऽग्निदीपने । खेचरत्वाद्यपध्यानं, मुहूर्तात्परतस्त्यजेत् ॥७॥ अर्थ - शत्र का नाश करना. राजापद के लिए उखाड़-पछाड़ या खटपट करना, नगर में तोड़फोड़ य. दंगे करना, नाश करना, आग लगाना, अथवा अन्तरिक्षयात्रा--अज्ञात अन्तरिक्ष में मन आदि के चिन्तनरूप कुध्यान में डूबे रहना, अपध्यान है। ऐसा दुर्ध्यान आ भी जाय तो मुहतं के बाद तो उसे अवश्य ही छोड़ दे। दुश्मन की हत्या करने, नगर को उजाड़ने या नगर में तोड़फोड़, दगे, हत्याकाण्ड आदि करने, आग लगाने या किसी वस्तु को फूक देने का विचार करना रौद्रध्यानरूप अपध्यान है । चक्रवर्ती बन या आकाशगामिनी विद्या का अधिकारी बन जाऊं, ऋद्धिसम्पन्न देव बन जाऊं थवा देवांगनाओं या विद्यार्धाग्यों के साथ सुखभोग करने वाला; उनका स्वामी बनइस प्रकार का दुश्चिन्तन आर्तध्यान है। इस प्रकार के दुश्चिन्तनों को मुहूर्त के बाद तो अवश्य छोड़ देना चाहिए । अब पापोपदेशरूप अनर्थदण्ड से विरत होने के लिए कहने हैं - वृषभान् दमय, क्षेत्रं कृष, षण्ढय वाजिनः। दाक्षिण्याविषये पापोपदेशोऽयं न कल्पते ॥७६॥ अर्थ बछड़ों को वश में करो, खेत जोतो, घोड़ों को खस्सी करो, इत्यादि पापजनक उपदेश दाक्षिण्य (अपने पुत्रादि) के सिवाय दूसरों को पापोपदेश देना श्रावक के लिए कल्पनीय (विहित नहीं है। व्याख्या-- 'गाय के बछड़ (जवान बैल) को बांध क' काव में कर लो। वर्षा का मौसम आ गया है; अत: अनाज बोने के लिए खेत जोत कर तैयार करो । वर्षाऋतु के पूर्ण हो जाने के बाद बोने का समय चला जायगा। अतः खेत में क्यारा कर देना चाहिए और झटपट साढ़े तीन दिन में धान बो देनः चाहिए । अब कुछ ही दिनों बाद राजा को घोड़े की जरूरत पड़ेगी, इमलिए अभी से इसे बधिया करवा दो। ग्रीष्मऋतु में खेत में आग लगाई जाती है ।" ये और इस प्रकार के उपदेश हिंसा आदि के जनक होने से पापोपदेश कहलाते हैं। श्रावक को ऐसी पराई पंचायत में पड कर पापोपदेश देना उचित नहीं है। अपने पुत्र, भाई आदि को लोकव्यवहार (दाक्षिण्य) के कारण प्रेरणा देनी पड़े, वह तो अशक्यपरिहार (अनिवार्य) है। दाक्षिण्य (प्रशिक्षण) के लिए भी उपदेश देना पड़े तो निरर्थक पाप में डालने वाला....जैसे शराब पी कर मस्त हो जा, जूआ खेलने से धन की प्राप्ति होगी ; अमुक स्त्री या वेश्या के साथ में गमन में बड़ा मजा आना है; फलां के साथ मारपीट कर या मुकद्दमेबाजी कर' इस प्रकार का अनर्थकर पापोपदेण अपने स्वजन को भी नहीं देना चाहिए। मूर्खता से अंटसंट बोल कर किसी को पाप में प्रवृत्त करने में अपना और उसका दोनों का नुकसान है। अब हिंसा के साधन दूसरों को देने का निषेध करते हैं
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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