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________________ २७० योगशास्त्र : तृतीय प्रकाश व्याख्या-जो धर्मात्मा रात्रिभोजन का त्याग करता है, उस पुरुष की आधी आयु तो उपवास में ही व्यतीत होती है। एक उपवास भी निर्जरा का कारणरूप होने से महाफलदायक होता है, तो सौ वर्ष की आयु वाले के पचास वर्ष तो उपवास में व्यतीत होते हैं ; उसका कितना फल होगा? यह अंदाजा लगाया जा सकता है । सारांश यह है कि रात्रिभोजन करने में बहुत-से दोष हैं, और उसका त्याग करने में बहुत-से गुण हैं, उन सबका कथन करना हमारी शक्ति से बाहर है। इसी बात को कहते हैं रजनीभोज्नयाग ये गुणाः परितोऽपि तान् । न सर्वज्ञात कश्चिदपरो वक्तुमीश्वरः ॥७॥ अर्थ-रात्रिभोजनत्याग में जो गुण हैं, उन सभी प्रकार के गुणों का पूर्णतया कथन तो सर्वज्ञ के सिवाय और कोई नहीं कर सकता। अब कच्चे दूध, दही या छाछ आदि के साथ द्विदल मिला कर खाने का निषेध करते हैं आमगोरससंपृक्तद्विदलादिषु जन्तवः । दृष्टाः केवलिभिः सूक्ष्मास्तस्मात्तानि विवर्जयेत् ॥७॥ अर्थ-कच्चे दही के साथ मिश्रित मूग, उड़द आदि द्विदल वगैरह में सूक्ष्मजीवों को उत्पत्ति केवलज्ञानियों ने देखी है ; अतः उनका त्याग करे। व्याख्या-जनशासन की ऐसी नीति है कि इसमें कई बातें हेतुगम्य होती हैं और कई बात होती हैं- आगम- आप्तवचन) गम्य । जो बातें तक, युक्ति, अनुभव आदि हेतु से जानी जाती हैं, उनका प्रतिपादन हेतु द्वारा करता है, और जो बातें हेतु द्वारा न जानी जा सकें या सिद्ध न हो सकें, उनका प्रतिपादन आगम-आप्तवचनों द्वारा करता है ; वही आज्ञा-आराधक होता है। इसके विपरीत जो हेतुगम्य बातों का आगम द्वारा प्रतिपादन करता है, और आगमगम्य वातों का हेतु द्वारा प्रतिपादन करने का प्रयत्न करता है, वह आज्ञाविराधक होता है । कहा भी है-'हेतुवादपक्ष को जो हेतु से मानता है, और आगमपक्ष को आगम से मानता है तथा स्वसिद्धान्त का यथार्थ प्रतिपादन करता है, वह आज्ञाराधक है और इसके विपरीत कथन करने वाला सिद्धान्तविरुद्धप्ररूपक होने से आज्ञाविराधक है।' ___ इस न्याय के अनुसार कच्चे गोरस के साथ द्विदल अनाज आदि में जीवों का अस्तित्व हेतु (युक्ति,तर्क या प्रत्यक्ष से) सिद्ध करना या जानना संगत नहीं है ; अपितु उन जीवों का अस्तित्व आगम के द्वारा जान कर उक्त वचन पर श्रद्धा करना उचित है। केवली भगवन्तों ने गोरस के साथ मिश्रित द्विदल अन्न में जीव देखे हैं । आदि शब्द से पकाये हुए वासी भोजन आदि में, दो दिन से अधिक दिनों के दही में, सड़े हुए खाद्य पदार्थ में भी जीव देखे हैं, यह समझ लेना चाहिए। इस दृष्टि से उन जीवों सहित भोजन तथा कच्चे दूध, दही छाछ आदि गोरस के साथ मिश्रित द्विदल-अन्नयुक्त भोजन का त्याग करना चाहिए । अन्यथा, ऐसे भोजन से प्राणातिपात नामक प्रथम आश्रव का दोष लगता है। केवलियों के वचन निर्दोष होते हैं. इसलिए वे आप्त-प्रामाणिक पुरुषों के वचन होने से श्रद्धायोग्य मान कर शिरोधार्य करने चाहिए । इसलिए यह नहीं समझना चाहिए कि मदिरा आदि से ले कर स्वाद में कि बासी या प्तड भोजन तक जो कहा है, वही अभक्ष्य हैं, शेष सब भक्ष्य हैं ! बल्कि और भी कोई भोज्य वस्तु, जो जीवों से युक्त हों, उसे अपनी बुद्धि से या फिर आगम से अभक्ष्य जान कर छोड़ देनी चाहिए।' इसी बात को कहते हैं
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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