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________________ रात्रिभोजन का दुष्फल और उसके त्याग का सुफल २६९ है; वह निष्फल या विपरीत फल वाला है। वास्तव में, ऐसे विपरीत आग्रह को नियम नहीं कहा जा सकता। अब रात्रिभोजन के फल के सम्बन्ध में कहते हैं उलूक-काक मार्जार-गृद्ध-शम्बर-शूकराः । अहि-वृश्चिक-गोधाश्च जायन्ते रात्रिभोजनात् ॥६७॥ अर्थ-रात्रिभोजन करने वाले मनुष्य अगले जन्म में उल्लू, कौए, बिल्ली, गोध, रामस, सूअर, सर्प, बिच्छू और गोह या मगरमच्छ आदि अधमजातीय तिर्यंचयोनियों में जन्म लेते हैं। आगे वनमाला का उदाहरण दे कर रात्रिभोजनत्याग का महत्व समझाते हैं श्रूयते ह्यन्यशपथान् नाद त्येव लक्ष्मणः । निशाभोजनशपथं कारितो वनमालया ॥६॥ अर्थ-सुना जाता है, वनमाला ने लक्ष्मण से दूसरे तमाम शपथों को स्वीकार न करके रात्रिभोजन से होने वाले पाप को शपथ (सौगन्ध) करवाई थी। व्याख्या-सुना है, रामायण में बताया गया है कि दशरथपुत्र लक्ष्मण पिता-माता की आज्ञा से राम और सीता के साथ जब दक्षिणपथ की ओर जा रहा था ; रास्ते में कुबेरनगर आया ; वहां के राजा महीधर की पुत्री वनमाला के साथ उसने विवाह किया। जब वनमाला को अपने पीहर में छोड़ कर लक्ष्मण राम के साथ आगे जाने के लिए वनमाला से विदा लेने लगा, उस समय लक्ष्मण के विरहदुःख से दुःखित एवं शीघ्र आगमन की सम्भावना से वनमाला ने लक्ष्मण से कहा-"प्राणनाथ ! आप मेरे सामने सौगन्ध खा कर पधारिए ।" तब लक्ष्मण ने कहा -"प्रिये ! यदि मैं राम को उनके अभीष्ट देश में पहुंचा कर वापिस लौट कर तुम्हें प्रसन्न न करूं तो मेरी गति भी वही हो, जो प्राणातिपात आदि से होती है।" परन्तु इस सौगन्ध (शपथ) से वनमाला को संतोप न हुआ। उसने कहा--"प्रियतम ! मैं आपको तभी जाने की अनुमति दे सकती हूं, जब आप इस प्रकार की सौगन्ध खाएगे कि 'अगर मैं न लौटा तो रात्रिभोजन करने से जो गति होती है, वही मेरी गति हो।" अतः लक्ष्मण ने वनमाला के अनुरोध से ऐसी सौगन्ध खाई , तभी उसने दूसरे देश की ओर प्रस्थान करने दिया। मतलब यह है कि दूसरी शपथों की अवगणना करके वनमाला ने रात्रिभोजनसम्बन्धी शपथ लक्ष्मण को दिलाई। अधिक लिखने से ग्रन्थ विस्तृत हो जायगा, इसलिए यहां इतना ही लिख कर विराम करते हैं। ___ शास्त्रीय उदाहरण के अलावा अब सर्वसाधारण के अनुभवों से सिद्ध रात्रिभोजनत्याग का फल बताते हैं करोति विरति धन्यो, यः सदा निशिभोजनात् । सोऽर्द्ध पुरुषायुषस्य स्यादवश्यमुपोषितः ॥६९॥ अर्थ-जो सदा के लिए रात्रिभोजन का त्याग (प्रत्याख्यान) करता है, वह पुरुष धन्य है। सचमुच, वह अपनी पूरी आयु के आधे भाग (यानी प्रत्येक रात्रि) में उपवासी रहता है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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