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________________ कन्द आदि अनन्तकायिक वनस्पति एवं अज्ञात फल त्याज्य हैं २६३ अर्थ समस्त हरे कन्द, सभी प्रकार के नये पल्लव (पत्त), थूहर, लवणवृक्ष की छाल, कुआरपाठा, गिरिकणिका लता, शतावरी, फूटे हुए अंकुर, द्विदल वाले अनाज, गिलोय, कोमल इमली, पालक का साग, अमृतबेल, शूकर जाति के वाल, इन्हें सूत्रों में अनन्तकाय कहा है। और भी अनन्तकाय हैं, जिनसे मिथ्यावृष्टि अनभिज्ञ हैं, उन्हें भी बयापरायण धावकों को यतनापूर्वक छोड़ देना चाहिए। व्याख्या सभी जाति के कन्द सूख जाने पर निर्जीव होने से अनन्तकाय नहीं होते । कन्द का आमतौर पर अर्थ है-वृक्ष के थड़ के नीचे जमीन में रहा हुआ भाग। वह सब हरा कन्द अनन्तकाय होता है। कुछ नाम यहां गिनाये जाते हैं- सूरण कन्द, अदरक, हलदी, वजकन्द, लहसुन. नरकचूर, कमलकन्द, हस्तिकन्द, मनुष्यकन्द, गाजर, पद्मिनीकन्द, कसेरू, मोगरी, मूथा, आलू, प्याज, रतालु आदि । किशलय से प्रत्येकवनस्पति के कोमल पत्ते और वीज में से फूटा हुआ प्रथम अंकुर ; ये सभी अनन्तकाय हैं । हर या लवण नामक वृक्ष की सिर्फ छाल ही अनन्तकाय है, उसके दूसरे अवयव अनन्तकाय नहीं हैं । कूआरपाठा, अपर जिता लताविशेष शक्तिवर्धक शतावरी नाम की औषधि, अंकुर फूटे हुए अनाज, जैसे चना मूग आदि ; प्रत्येक किस्म की गड़ ची (गिलोय), जो नीम आदि के पेड़ पर लगी होती है, और खास कर औपधि के काम में आती है, कोमल इमली, पालक का शाक, अमरबेल, शूकरवाल, (एक प्रकार की बड़ी बेल है, जो जंगल में पाई जाती है, और जिसमें से वराहकन्द निकलता है। (वल्ल शब्द के पूर्व यहाँ शूकर इसलिए लगाया गया है कि कोई साग या दाल (अन्न) के रूप में वाल-रोंगी आदि को अनन्तकाय में न मान ले। ये सभी आर्यदेश में प्रसिद्ध हैं। म्लेच्छदेश में भी कहीं-कहीं प्रसिद्ध है ; जीवाभिगम आदि विभिन्न सूत्रों में यह बताया गया है । दयापरायण सुश्रावक के लिए ये त्याज्य हैं। मिथ्यादृष्टिजन इन सब में अनन्तकायत्व से अनभिज्ञ होते हैं ; वे तो वनस्पति को भी सजीव नहीं मानते, अनन्तकायिक जीवों को मानने की बात तो दूर रही। अव अज्ञातफल का त्याग करने के लिए कहते हैं-~ स्वयं परेण वा ज्ञातं फलमद्याद् विशार। निषिद्ध विषफले वा, माभूदस्य प्रवर्तनम् ॥४७॥ अर्थ स्वयं को या दूसरे को जिस फल को पहिचान नहीं है, जिसे कभी देखा, सुना या जाना नहीं है; उस फल को न खाए। बुद्धिशाली व्यक्ति वही फल खाये, जो उसे ज्ञात है। चतर आदमी अनजाने में (अज्ञानतावश) अगर अज्ञात फल खा लेगा तो, निषिद्धफल खाने से उसका व्रतभंग होगा, दूसरे, कदाचिद कोई जहरीला फल खाने में आ जाय तो उससे प्राणनाश हो जायगा। इसी दृष्टि से अज्ञातफलभक्षण में प्रवृत्त होने का निषेष किया गया है। अब रात्रिभोजन का निषेध करते हैं अन्न प्रेत-पिशाचा: संच दाबानरः । उच्छिष्टं क्रियते यत्र, तत्र नाबाद विनात्यये ॥४॥
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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