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________________ भोगोपभोगपरिमाणवत का लक्षण स्वरूप और प्रकार २४९ __ अणुव्रती सद्गृहस्थ के लिए यह व्रत जीवनपर्यन्त के लिए होता है, कम से कम चार महीने के लिए भी यह व्रत लिया जाता है। निरन्तर सामायिक में रहने वाले, आत्मा को वश करने वाले जितेन्द्रिय पुरुषों या साधु-साध्वियों के लिए किसी भी दिशा में गमनागमन से विरति या अविरति नहीं होती। चारणमुनि ऊर्ध्वदिशा में मेरुपर्वत के शिखर पर भी, एवं तिरछी दिशा में रुचक पर्वत पर भी गमनादि क्रियाएं करते हैं । इसलिए उनके लिए दिग्विरतिवत नहीं होता। जो सुबुद्धिमान व्यक्ति प्रत्येक दिशा में जाने-आने की मर्यादा कर लेते हैं ; वे स्वर्ग आदि में अपार सम्पत्ति के स्वामी बन जाते हैं। अब प्रसंगवश दूसरे गुणव्रत के सम्बन्ध में कहते हैं भोगोपभोगयोः संख्या शक्त्या यत्र विधीयते । भोगोपभोगमानं तद् द्वतीयोकं गुणवतम् ॥४॥ अर्थ जिस व्रत में अपनी शारीरिक मानसिक शक्ति के अनुसार भोग्य और उपभोग्य वस्तुओं की संख्या के रूप में सीमा निर्धारित कर ली जाती है, उसे भोगोपभोगपरिमाण नामक दूसरा गुणव्रत कहा है। अब भोग और उपभोग का स्वरूप समझाते हैं सकृदेव भुज्यते यः स भोगोऽन्ननगादिकः । पुनः पुनः पुनर्नोग्य उपभोगोऽङ्गनादिकः ॥५॥ अर्थ जो पदार्थ एक ही बार भोगा जाय, वह भोग कहलाता है, जैसे अन्न, जल, फूल, माला, ताम्बूल, विलेपन, उद्वर्तन, धूप, पान, स्नान आदि । और जिसका अनेक बार उपभोग किया जा सके, उसे उपभोग कहते हैं। उदाहरण के तौर पर- स्त्री, वस्त्र, आभूषण, घर, बिछौना, आसन, वाहन मादि । यह भोगोपभोगपरिमाण व्रत दो प्रकार का है-पहले में, भोगने योग्य वस्तु को मर्यादा कर लेने से होता है और दूसरे में, अभक्ष्य वस्तुओं का त्याग करने से होता है। इसे ही निम्नलिखित दो श्लोकों में प्रस्तुत करते हैं मद्य मासं नवनीतं मधूदूम्बरपञ्चकम् । अनन्तकायमज्ञातं फलं, रात्रौ च भोजनम् ॥६॥ आमगोरसस' तद्विदलं पितादनम् । वध्यहद्वितयातीतं कुथितान्नं च वर्जयेत् ॥७॥ अर्थ मध दो प्रकार का होता है-एक ताड़ आवि वृक्षों के रस (ताड़ी) के रूप में होता
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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