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________________ अभयकुमार द्वारा बुद्धिबल से चंडप्रद्योत की फजीहत और मुनि के प्रति अश्रद्धानिवारण २४३ बताया। तीसरे दिन भी उनसे दूती ने याचना की। तब इन दोनों ने कहा-'हमारा सदाचारी भाई ही हमारा संरक्षक है । आज से सातवें दिन वह दूसरे गाँव जाएगा, तब अगर गुप्तरूप से राजा यहाँ आएगा तो समागम हो सकेगा।" दूतिका ने जा कर सारी बात चंडप्रद्योत से कही। दूती के चले जाने के बाद अभयकुमार ने चण्डप्रद्योत से मिलते-जुलते चेहरे वाले एक आदमी को पागल बनाया और उसका नाम भी चंडप्रद्योत रमा। फिर अभयकुमार लोगों से कहने लगा- 'अरे ! मेरा भाई मुझे चैन से नहीं बैठने देता वह मुझे इधर उधर घूमाता है। उसकी रक्षा की मुझ पर जिम्मेवारी है। समझ में नहीं आता, कैसे उसकी रक्षा की जाय ?' अभयकुमार रोजाना उसे खाट पर सुला कर बाहर ले जाता था. मानो वह रोग से पीड़ित हो, और उसे वैद्य के यहां ले जाते हों । जब उम पागल को चौराहे से ले जाया जाता, तब वह जोर-जोर से चिल्लाता, आंसू बहाता और रोता हआ कहता-"अरे, मैं चंडप्रद्योत हं, मेरा अपहरण करके ले जा रहे हैं ये लोग !" ठीक सातवें दिन वहाँ गुप्तरूप से हाथी की तरह कामान्ध चण्डप्रद्योत राजा अकेला ही आया। पूर्वसंकेत के अनुसार अभयकुमार के आदमियों ने उसे बांध दिया, तब 'मैं इसे वैद्य के पास ले जा रहा हूँ,' यों कहते हुए अभयकुमार ने पलंग के साथ नगर में दिन-दहाड़े चिल्लाते हुए राजा चण्डप्रद्योत का अपहरण किया। पहले से कोम-कोस पर तैयार करके रखे हुए तेज. तर्रार घोड़ों से जुने रथ में चण्डप्रद्योत को बिठा कर नि पीक अभयकुमार उसे सीधा राजगृह ले आया। फिर चण्डप्रद्योत राजा को उमने धणिक राजा के सामने प्रस्तुत किया । श्रेणिक राजा तलवार खींच कर उसे मारने दौड़ा; मगर अभयकुमार ने बीच में पड़ कर उन्हें ऐमा करने से रोका । तत्पश्चात् सम्मान करके बम्बाभषण दे कर प्रसन्नता से चण्डप्रद्योत राजा को छोड़ दिया। एक बार तेजस्वी गणधर श्री सुधर्मास्वामी के पास समार से विरक्त हो कर किसी लकड़हारे ने दीक्षा ले ली। किन्तु जब वह नगर में विचरण करता, तब नगरवासी उसकी पूर्वावस्था को याद करके जगह-जगह उमका मजाक उड़ाते और उसकी निन्दा करते । इससे क्षब्ध हो कर उसने सुधर्मा स्वामी से कहा . "गुरुदेव ! मैं यहां रह कर अपमान सहने में असमर्थ हूं । अतः अन्यत्र बिहार करना चाहता हूं।" इस कारण सुधर्मास्वामी भी अन्यत्र बिहार करने की तैयारी कर रहे थे । अभयकुमार ने जब यह देखा तो उसने गणधरमहाराज से अन्यत्र बिहार करने का कारण पूछा। उन्होंने सरलता से अपने अन्यत्र बिहार का कारण बता दिया। अभयकमार ने गणधर महाराज को वन्दना करके विनयपूर्वक प्रार्थना की"प्रभो ! एक दिन और अधिक यहां विराजने की कृपा करें, उसके बाद आपको जैसा उचित लगे वैसे करना।" अभयकमार ने राज्यकोष मे एक-एक करोड़ की कीमत के रत्नों के तीन ढर निकलवा कर आम बाजार में जहाँ लोगों का आवागमन ज्यादा रहता था, वहां लगवा दिये और नगर में ढिंढोरा पिटवा कर घोषणा करवा दी -'नागरिको ! सुनो ; मुझे (अभय कुमार को) रत्नों के ये तीनों ढेर दान करने हैं ।" यह सुन कर नगरनिवासियों की घटनास्थल पर भीड़ लग गई । उम भीड़ को सम्बोधित करते हुए अभयकुमार ने कहा - "प्रजाजनगे ! आप में से "जो सचित्त जल, अग्नि और स्त्री इन तीन चीजों का जिंदगीभर के लिए त्याग करेगा, उसे रत्नों के ये तीनों ढेर दिये जायेंगे। बोलो है, कोई तैयार, ऐसा त्याग करने के लिए ?" उपस्थित लोग कहने लगे-"मंत्रिवर ! आजीवन ऐसा त्याग करना तो हमारे लिए बहुत ही कठिन है । ऐसा लोकोत्तर त्याग तो विरले ही कर सकते हैं ।" इस पर अभयकमार ने उलाहना देते हुए कहा--"यदि तुममें से कोई भी ऐसा त्याग नहीं कर सकता तो फिर तीन करोड़ मूल्य के रत्न मचित्त जल, अग्नि और स्त्री का आजीवन त्याग करके महामुनि बन जाने वाले लकड़हारे को दे दिये जांय ? इस प्रकार के त्यागी साधु ही इस दान के लिए सुपात्र हैं। लेकिन हम लोग ऐसे त्यागी साधु की
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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