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________________ २४२ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश एक दिन चण्डप्रद्योत राजा के नलगिरि हाथी ने, जिस खंभे से बंधा हुमा था, उसे जड़ से उखाड़ कर दो महावतों को जमीन पर पटक दिया । फिर मतवाला हो कर नगर में स्वच्छन्द घूमता हुआ नगरवासियों को हैरान करने लगा। राजा ने अभयकुमार से पूछा--'स्वच्छन्द हाथी को कैसे वण में किया जाय ?' अभयकुमार ने उपाय बताया कि- 'अगर उदयन राजा संगीत सुताए तो हाथी वश में हो मकता है।' वासवादत्ता नामकी पुत्री को गान्धर्व विद्या पढ़ाने के लिए कंद किये हुए उदयन ने वासवदत्ता के साथ यहां गीत गाया । नलगिरि हाथी संगीत से आकर्षित हो कर सुनने के लिए वहाँ रुका, तभी उसे मजबूत सांकल से बांध दिया । "राजा ने फिर प्रसन्न हो कर अभयकुमार से वरदान मांगने को कहा। उसे भी अभय कुमार ने अमानत के रूप में रखवा दिया । एक बार अवन्ति में ऐसी आग लगी, जो बुझाई नहीं जा सकती थी। राजा चंडप्रद्योत ने फिर घबरा कर अभयकुमार से आग बुझाने का उपाय पूछा । अभयकुमार ने कहा 'जहर से जहर मरता है, इसी तरह आग से आग बुझती है। इसलिए आप उस आग के सामने दूमरी आग जलाओ, जिमसे वह आग स्वतः बुझ जाएगी।' ऐसा ही किया गया। फलतः वह प्रचण्ड आग बुझ गई। अब क्या था, राजा ने अभयकुमार को तीसरा वरदान मांगने को कहा । वह भी उसने अमानत के रूप में रखवा दिया। एक बार उज्जयिनी में महामारी का उपद्रव हुआ। लोग टगाटप मग्ने लगे । राजा ने महामारी की शान्ति के लिए अभयकुमार से उपाय पूछा तो उसने कहा .. "भी रानियां अलकारों से सुसज्जित हो कर आपके पास अन्तःपुर में आवें, जो रानी आपको दृष्टि में जीत , तब उसे मुझे बताना । फिर मैं आगे का उपाय बताऊंगा।" राजा ने उसी प्रकार किया। दृष्टियुद्ध में ओर तो सभी रानियाँ हार गई, किन्तु शिवादेवी ने राजा को जीत लिया। अभयकुमार को बुला कर सारी हकीकत बताई । उसने कहा -'शिवादेवी रात को स्वयं क्रू रबलि से भूनों की पूजा करे । जो-जो भूत मियार का रूप बना कर उठे और आवाज करें, उसके मुंह में देवी स्वयं क रबलि डाले ।" शिवादेवी ने इसी तरह किया, फलत: महामारी का उपद्रव शान्त हो गया। इसमे खुश हो कर राजा ने अभयकुमार को चौथा वरदान दिया। उम समय अभयकुमार ने मांग की--'आप नलगिरि हाथी पर महावत बन कर बैठे हों और मैं शिधादेवी की गोद में बैठा होऊ और इसी स्थिति में ही अग्निभीरु रथ की लकड़ो की बनाई हई चिता में प्रवेश करू।" इस वरदान को देने में असमर्थ चण्डप्रद्योत राजा ने उदास हो कर हाथ जोड़ कर श्रेणिकपुत्र अभयकुमार को अपनी नगरी में जाने की आज्ञा दी। अभयकुमार ने भी जाते समय प्रतिज्ञा की--' आपने मुझे कपटपूर्वक पकड़वा कर मंगाया है, लेकिन मैं दिन-दहाड़े जोर-जोर से चिल्लाते हुए आपको नगर से ले जाऊंगा ." वहाँ से अभयकुमार राजगृह पहुंचा । और बुद्धिमान अभय ने कुछ समय राजगही में ही शान्ति से बिताया। ____एक दिन दो रूपवती गणिका-पुत्रियों को ले कर अभयकुमार एक व्यापारी के वेश में अवन्ति पहुंचा । राजमार्ग के पास ही उसने एक मकान किराये पर ले लिया। उस रास्ते से जाते हुए चण्डप्रद्योत ने एक दिन उन दोनों वेश्याओं को देखा । वेश्याओं ने भी विलास की दृष्टि से चंडप्रद्योत की ओर देखा। फलतः चण्डप्रद्योत उन पर मोहित हो गया। महल में पहुंच कर चण्डप्रद्योत ने उन दोनों गणिकाओं को समझा कर समागम की स्वीकृति के लिए दूती भेजी। परन्तु उन्होंने दूती की बात ठुकरा दी । दूसरे दिन फिर दूती ने आ कर राजा से समागम के लिए प्रार्थना की । तब भी उन दोनों ने रोष में आ कर कुछ अनादर
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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