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________________ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश सकती हैं।' राजा ने उसे उस कार्य को करने की सहर्ष अनुमति दी। और कहा-'इस कार्य में तुम्हें धन आदि किसी भी चीज की जरूरत हो तो बताओ।' वेश्या ने सोचा-'अभयकुमार और किसी उपाय से तो पकड़ में आना मुश्किल है, केवल धर्मप्रपंच मे ही मैं अपना कार्य सिद्ध कर सकगी। अतः गणिका ने दो प्रौढ़ स्त्रियों की मांग की, अपने साथ ले जाने के लिए। राजा ने बहुत-सा धन दे कर गणिका के साथ जाने के लिए दो स्त्रियाँ तैयार की। वे दोनों स्त्रियाँ गणिका के साथ छाया की तरह रहने लगीं। अब ये तीनों स्त्रियां हमेशा साध्वियों की सेवाभक्ति करती थी, उनके प्रति आदरभाव रखतीं, इस कारण साध्वियों से बौद्धिक उत्कृष्टता के कारण बहुत-सा ज्ञान प्राप्त कर लिया। वे तीनों जगत् को ठगने के लिए मानो तीन मायामूर्तियां हों। वे तीनों एक गाँव से दूसरे गांव घूमती हुई श्रेणिक नृप से अलंकृत राजगहनगर में पहुंचीं। नगर के बाहर उद्यान में उन्होंने अपना पड़ाव डाला । गणिका उन दोनों साथिनों को ले कर चैत्य-परिपाटी करने की इच्छा से नगर में आई। फिर राजा के द्वारा निर्मित जिनमन्दिर में अतिशय भक्तिभावपूर्वक तीन बार नैषिधिकी (निसिही निसिही) करके उन तीनों ने प्रवेश किया। प्रतिमापूजन करके उमने मालवकौशिकी तर्ज में लय और तालसहित मधुरभाषा में देववन्दन करना प्रारम्भ किया। उस समय वहाँ अभयकुमार भी चैत्यवन्दन करने आया हुआ था। उसने इन तीनों को वहीं प्रतिमा के सम्मुख देववन्दन करते हुए देखा । अभयकुमार यह सोच कर रंगमंडप में प्रवेश न करके द्वार पर ही खड़ा रहा कि 'अगर मैं अदर प्रवेश करूंगा तो इन्हें देववन्दन करने में खलल पहुंचेगी। जब वे मुक्ताशुक्तिमुद्रा से प्रणिधान करके खड़ी हुई तो अभयकुमार भी उनके सम्मुख आया। उनकी इस प्रकार की भावना और गान्तवेश देख कर अभयकुमार उनको प्रशंसा करता हुआ प्रसन्नतापूर्वक उनसे कहने लगा--'भद्रे ! अहोभाग्य से आज आप जैसी साधर्मी बहनों का समागम हुआ है। इस संसार में विवेकी आत्माओं के लिए साधर्मी से बढ़ कर दूसरा कोई बन्धु या भगिनी नहीं है। अगर आपको बताने में कोई आपत्ति न हो तो बताइए कि आप कौन हैं ? कहाँ से आई है ? आपका निवास स्थान कहाँ पर है ? स्वाति और विशाखा नक्षत्र से सुशोभित चन्द्रलेखा की भांति आपके साथ में ये दोनों महिलाएं कौन है ?' उस बनावटी श्राविका ने कहा- मैं अवन्तिवासी एक बड़े सेठ की विधवा धर्मपत्नी हूँ। मेरे दो पुत्रों की मृत्यु हो जाने वृक्ष की छाया के बिना लता की तरह से निराधार बनी हुई ये दोनों मेरी विधवा पुत्रवधुएँ हैं। विधवा होने के बाद महाव्रत अंगीकार करने की इच्छा से इन्होंने मुझ से अनुमति मांगी। क्योंकि विधवानारियों के लिए दीक्षा ही शरण्य है। मैं तो अब थक गई हैं। फिर भी गृहस्थावस्था के अनुरूप व्रत धारण करूंगी। परन्तु करूंगी तीर्थयात्रा कर लेने के बाद ही। संयमग्रहण करने पर तो सिर्फ भावपूजा ही हो सकती है । द्रव्यपूजा गृहस्थ-जीवन में ही हो सकती है। साध्वीजीवन में हो नहीं सकती। इस दृष्टि से इन दोनों के साथ मैं तीर्थयात्रा करने को निकली हूँ। यह सुन कर अभयकुमार ने कहा-'आज आप मेरे यहाँ अतिथि बनें । 'तीर्थयात्रा करने वाले सामिक का सत्कार तीर्थ से भी अधिक पवित्र करने वाला होता है। नकली श्राविका ने उत्तर दिया- 'आप ठीक कह रहे हैं। परन्तु तीर्थ के निमित्त से आज मेरा उपवास होने के कारण आज आपकी अतिथि कैसे बन सकती है?' उसकी धर्मभावना से प्रभावित हो कर अभयकुमार ने फिर कहा-'तो फिर कल प्रातःकाल मेरे यहाँ जरूर पधारना ।' उसने प्रत्युत्तर दिया-'एक क्षणभर में जहाँ जीवन समाप्त हो जाता है, ऐसी स्थिति में कोई भी बुद्धिशाली यह कैसे कह सकता है कि मैं सुबह यह करूंगा? आपकी यह बात ठीक है, तो फिर कल के लिए निमंत्रण करता हूं।' ऐसा कह कर उनसे विदा हो कर स्वयं मन्दिर में चैत्यवन्दन करके अभयकुमार घर चला गया।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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