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________________ अभयकुमार के बुद्धिबल से चंडप्रद्योत की सेना में फूट २३६ सीता को पटरानी बनाई थी, वैसे ही राजा श्रेणिक ने नन्दा को पटरानी बनाई ! अमयकुमार की पिता पर अत्यन्त भक्ति थी तथा उनके सामने अपने आपको अणु से अणु के समान मानता था। इस विनीतता के कारण दु:माध्य राजा को भी उसने अपने वश में कर लिया था। एक बार उज्जयिनीनरेश चण्डप्रद्योत भी सामग्री एवं दलबल साथ में ले कर राजगृह को घेर कर चढ़ाई करने के लिए चला । उसके साथ परमाधार्मिक सरीखे १४ अन्य मुकुटबद्ध राजा थे । लोगों ने चण्डप्रद्योत को आते हुए देखा । उसके तेजतर्रार घोड़े से दौड़ते हुए आ रहे थे, मानो पृथ्वी को चीर डालेंगे । गुप्तचरों ने आ कर राजा थेणिक को तुरन खबर दी। श्रेणिक सुन कर क्षण भर विचार में पड़ गया कि 'क्रू रग्रह के समान क्रुद्ध हो कर सम्मुख आते हुए चंडप्रद्योत को कैसे कमजोर करें ?" दूसर ही क्षण राजा ने अमृत-समान मधुरदृष्टि से औत्पातिक बुद्धि के निधि अभयकुमार की ओर देखा । अत. यथानाम तथा गुण वाल अभयकुमार ने राजा से सविनय निवेदन किया-आज उज्जयिनीपति में युद्धका अतिथि बने । इसमें इतनो चिन्ता को क्या बात है ? बुद्धिसाध्य कार्य में शस्त्रास्त्र की बात करना वृथा है। मैं तो बुद्धिबल का ही प्रयोग करूंगा। बुद्धि ही विजय दिलाने में कामधेनु सरीखी है।" उसके बाद अभयकुमार ने नगर के बाहर जहाँ शत्रु की सेना का पड़ाव था, वही लोह के डिब्बों में सोने की दीनारें डाल कर गड़वा दीं। समुद्र का जल जैसे गोलाकार भूमि को घर लेता है, वैसे ही चंडप्रद्योत की मेना ने राजगृह को चारों ओर से घेर लिया। अभयकुमार ने मिष्टभापी गुप्तचरों के मारफत इस आशय का एक पत्र लिख कर भेजा-"अवन्तिनरेश ! शिवादेवी और चिल्लणादवो में आप जरा भी अन्तर मत समझना। इस कारण शिवादेवी के नाते आप मेर लिए सदा माननीय हैं। मैं आपको एकान्त हितबुद्धि से सलाह दता हूं कि मेरे पिता श्रीणिक राजा ने आपक समस्त राजाओं में फूट डाल दी है। उन्हें वश में करने के लिए राजा ने सोन की मुहरें भेजी हैं। उन्हें स्वय स्वीकार करक वे आपको बांध कर मेरे पिताजी के सुपुर्द कर देगे। मरी बात पर आपको विश्वास न हो तो आप उनके निवासस्थान के नीचे खदवा कर गड़ी हई सोन की मुहर निकलवा कर इतमीनान कर ले । जलता हुमा दीपक मौजद हो तो आग को कौन लेना चाहेगा? यह जान कर चण्डप्रद्योत ने एक राजा के पड़ाव के नीचे की जमीन ख़ववाई तो वहां पर अभयकुमार ने जैसा कहा था, उसी रूप में स्वर्णमुद्राएं मिल गई। यह देख कर निराश चंडप्रद्योत वहां से चुपके से भाग गया। उसके भाग जाने से उसकी सारी सना को समुद्र के समान मथ कर थेणिक ने चारों ओर से घेर लिया। उस सेना के सारभूत हाथी, घोड़े आदि बणिक ने अपने कब्जे में कर लिए। चण्डप्रद्योत के नाक में दम आ गया। अतः किसी प्रकार अपनी जान बचा कर द्रुतगामी घोड़े से किसी भी तरह अपनी नगरी में पहुंचा । वे चौदह राजा एवं अन्य महारथी भी कौओ की तरह भाग गए । क्योंकि नायक के बिना सेना नष्ट हो जाती है। चंडप्रद्योत राजा के पीछे-पीछे जब वे राजा उज्जयिनी पहुंचे तो उनके बाल बिखरे हुए और फुर-फर उड़ रहे थे, चेहरे उदास थे, मस्तक पर छत्र तो किसी के भी नहीं था। उन सभी राजाओं ने चण्डप्रद्योत को शपथपूर्वक विश्वास दिलाया कि 'महाराज ! हम कभी ऐसा विश्वासघात करने वाले नहीं हैं । यह सारी चाल अभयकुमार की मालूम होती है। यह जान कर अवन्तिनरेश को अभयकुमार पर बहुत रोष चढ़ा। एक बार अवन्तिपति ने अपनी सभा में रोषपूर्वक कहा -'जो अभयकुमार को बांध करके यहाँ ला कर मुझं सोंपेगा, उसे मैं मनचाहा धन इनाम में दूंगा।' एक वेश्या ने पताका के समान हाथ ऊंचे करके बीड़ा उठाया और चण्डप्रद्योत से विनति की-'राजन् ! मैं इस काम को बखूबी कर
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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