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________________ २३६ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश श्रेणिककुमार की यह बौद्धिक कुशलता देख कर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। एक दिन प्रसेनजित् के महल में आग लग गई; तब उसने सभी राजकुमारों से कहा- 'मेरे महल में से तुम्हें जो चीज हाथ लगे, ले जाओ। जो चीज जिसके हाथ लगेगी, वही उसका मालिक होगा।' यह सुन कर और राजकुमार तो अच्छे-अच्छे रत्न ले कर बाहर आए, लेकिन श्रेणिक राजकुमार सिर्फ डंका पीटने का एक नगाड़ा ले कर बाहर निकला । राजा ने श्रेणिककुमार से पूछा-'बेटा ! यह क्या और क्यों ले आए हो?' श्रोणिक ने उत्तर दिया-'यह नगाड़ा है, राजाओं की विजय का प्रथम सूचकचिह्न तो यही है। इसकी आवाज से राजाओं की विजययात्रा सफल होती है। इसलिए स्वामिन् ! राजाओं के जयशब्दसूचक इस नगाड़े की आत्मा के समान रक्षा करनी चाहिए। श्रेणिक के परीक्षा में उत्तीर्ण होने से श्रेणिक की प्रखर बुद्धि का लोहा मान कर राजा प्रसेनजित ने प्यार से उसका दूसरा नाम 'भंभासार' रखा। अपने आपको राज्याधिकार के योग्य मानने वाले अन्य राजपुत्रों को प्रसेनजित् शासनाधिकार के योग्य नहीं मानता था । परन्तु राजा प्रसेनजित् श्रेणिक के बुद्धिकौशल को परखने की दृष्टि से ऊपर-ऊपर से उसके प्रति उपेक्षाभाव रखता था । राजा ने दूसरे कुमारों को अलग-अलग देशों का राज्य दे दिया। लेकिन श्रेणिक को यह सोच कर कुछ भी नहीं दिया कि भविष्य में यह सारा राज्य इसी के हाथ में आएगा। - इसके बाद अरण्य से जैसे जवान हाथी निकलता है, वैमे ही स्वाभिमानी श्रेणिक पिता का रवैया देख कर अपने नगर से निकल पड़ा और वेणातट नगर पहुंचा। नगर में प्रविष्ट होते ही भद्रश्रेष्ठी की दकान पर बैठा. मानो साक्षात लाभोदयकर्म ही हो। नगर में उस दिन कोई महोत्सव था, इसलिए सेठ की दूकान पर उत्तम वस्त्र, अंगराग से सम्बन्धित सुगन्धित पदार्थ खरीदने वाले ग्राहकों का तांता लग गया। ग्राहकों की भारी भीड़ होने से सेठ घबरा गया। अतः श्रेणिककुमार ने फुर्ती से पुड़िया आदि बांध कर प्राहकों को सौदा देने में सहायता दी। श्रेणिककुमार के प्रभाव से सेठ ने उस दिन बहुत ही धन कमाया । सचमुच, पुण्यशाली पुरुष के साथ परदेश में भी सम्पत्तियां साथ-साथ चलती हैं।' यह देख कर सेठ ने प्रसन्नतापूर्वक पूछा 'बाज आप किस पुण्यशाली के यहाँ अतिथि हैं ? कुमार बोला-आपका ही ! सेठ ने मन ही मन सोचा- 'आज रात को स्वप्न में मैंने नन्दा के योग्य वर देखा था; वह यही मालूम होता है। अतः प्रगट में कहा-"आज आप मेरे अतिथि बने हैं. इससे मैं धन्य हो गया है। आपका समागम तो प्रमादी के यहां गंगा के समागम-सरीखा हआ है।" दुकान बद करके सेठ श्रेणिककुमार को अपने घर ले गया। वहाँ उसे स्नान कराया, नये बढ़िया कपड़े पहिनाए और सम्मानपूर्वक भोजन करवाया। सेठ के यहां रहते-रहते कई दिन बीत गए। एक दिन सेठ ने अपनी पुत्री को सम्मुख प्रस्तुत करते हुए कुमार से विनति की - 'मेरी इस नन्दा नामक पुत्री के साथ आप विवाह करना स्वीकार करें।' श्रेणिक ने सेठ से कहा-'आप मुझ अज्ञातकुलशील व्यक्ति को कैसे अपनी कन्या दे रहे हैं ?' सेठ बोला- "आपके गुणों से आपके कुल और शील ज्ञात हो ही गये हैं।' अत्यधिक आग्रह देख कर श्रेणिक ने उसी तरह नंदा के साथ विवाह कर लिया, जैसे विष्णु ने समुद्रपुत्री (लक्ष्मी) के साथ किया था। विवाह के बाद श्रेणिक नन्दा के साथ सुखोपभोग करते हुए वहां उसी तरह रहने लगे, जिस तरह वृक्षघटा में हाथी सुखपूर्वक रहता है। इधर प्रसेनजित् राजा ने दूत द्वारा श्रेणिक का सारा वृत्तान्त जान लिया। क्योंकि राजा दूतों की मांखों से देखने के कारण हजार आँखों वाला होता है। अचानक प्रसेनजित् राजा के शरीर में एक भयंकर बीमारी खड़ी हो गयी। कितने ही इलाज करवाये, लेकिन वह जाती ही नहीं थी। अत: अपना
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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