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________________ २२४ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश नामक संहनन वाले, तेजस्वी शरीर कान्तिमान देह वाले, तीर्थकर आदि तथा चक्रवर्ती आदि के रूप में महाबलशाली होते हैं। अब ब्रह्मचर्य की महिमा के सम्बन्ध में कुछ श्लोकार्थ प्रस्तुत करते हैं कामी मनुष्य स्त्रियों की टेढ़ीमेढी सर्पाकार केशराशि को देखता है, परन्तु उमके मोह के कारण होने वाली दुष्कर्मपरम्पग को नहीं देखता। सिन्दूरी रग से भरी हुई नारियों के बाल की मांग को देखता है, लेकिन सीमन्त नामक नरकपथ है. उसका उसे पता नहीं है । सुन्दर, रंगरूपवाली सुन्दरियों की भ्र लता को मोक्षमार्ग पर प्रयाण करने में बाधक सपिणी कहा है, क्या तुम इसे नहीं जानते ? मनुष्य अंगनाओं के मनोहर नेत्रों के कुटिल कटाक्षों का अवलोकन करता है, मगर इससे उमका जीवन नष्ट होता है, यह नहीं देखता। वह स्त्रियों के सरल और उन्नत नासिकावंश (नाकरूपी डंडे) की प्रशंसा करता है, परन्तु मोह के कारण अपने वंश को नष्ट होता हुआ नहीं देखता। स्त्रियों के कपोलरूपी दर्पण मे पड़े हुए अपने प्रतिबिम्ब को देख कर खुश होता है, लेकिन खुद को उस जड़भरत के समान ससाररूपी तलैया के कीचड़ में फंसा हआ नही जानता। रतिक्रीड़ा के सभी सुख समान है इस दृष्टि से स्त्री के लाल ओठ का पान करता है, लेकिन यमराज उसके आयुष्यरस का पान कर रहा है, इसे नहीं ममझता। स्त्रियों के मोगरे की कली के समान उज्ज्वल दांतों को तो आदरपूर्वक देखता है, किन्तु बुढ़ापा जबर्दस्ती उसके दांत तोड़ रहा है, इसे नहीं देखता । स्त्रियों के कर्णफूल (कानपाश) को कामदेव के हिंडोले की दृष्टि से देखता है, लेकिन अपने कठ और गर्दन पर लटकते हुए काल के पाश को नहीं देखता। भ्रष्टबुद्धि मानव रमणियों के मुख को हरक्षण देखता है, परन्तु खेद है कि यमराम के मुख को देखने का उसे समय नहीं है। कामदेव के वशीभूत बना हुआ मनुष्य स्त्रियों के कंठ का आश्रय लेता है, लेकिन आज या कल देरसबेर से कंठ तक आए हुए प्राणों को नहीं जानता। दुर्बुद्धि मानव युवतियों के भुजलता के बंधन को तो अच्छा समझता है, लेकिन कों से जकड़ी हई अपनी आत्मा के बंधनों के लिए नहीं सोचता। अगनाओं के करकमल के स्पर्श से खुश हुआ पुरुष रोमांच के कांटे को तो धारण करता है, लेकिन नरक के कूटशाल्मलि वृक्ष के तीखे कांटे को याद नहीं करता। जड़बुद्धि मानव युवती के स्तनकलशों को पकड़ कर सुखपूर्वक गाढ़ालिंगन करके सोता है। किन्तु कुम्भीपाक से होने वाली वेदना को भूल जाता है । मन्दबुद्धि जीव क्षणक्षण में कटाक्ष करने वाली स्त्रियों के बीच निवास करता है, लेकिन स्वयं भवसमुद्र के बीच में पड़ा है, इस बात को भूल जाता है । कामवासनालिप्त मूढमानव स्त्रियों के उदर की त्रिवली (तीनरेखा) रूप त्रिवेणी की तरंगों से आकर्षित होता है। मगर यह नहीं सोचता, त्रिवेणी के बहाने भवजल में डुबोने वाली यह वैतरणी नदी है । नर का कामपीड़ित मन नारी की नाभिरूपी वापिका में डूबा रहता है, लेकिन वह मन सुख के स्थानरूप साम्यजल में प्रमादवश नही डूबता । स्त्रियों की रोमावलीरूपी लता को कामदेवरूपी वृक्ष पर चढ़ने की निःश्रेणी जानता है, परन्तु वह यह नहीं जानता कि यह संसाररूपी कारागार में जकड़ कर रखनेवाली लोहशृखला है। अधमनर नारी के विशाल जघन का सहपंसेवन करता है, लेकिन वह इस संसारसमुद्र का तट है, यह कदापि नही जानता। मंदबुद्धि मानव गधे के समान युवतियों की जांघों का सेवन कर अपने को धन्य मानता है, लेकिन यह नहीं समझता है कि ये स्त्रियां ही तो सद्गति-प्राप्ति में रोड़ा अटकाने वाली हैं। स्त्रियों की लात खा कर अपने को बड़ा भाग्यशाली समझता है, मगर यह नहीं समझता कि वे इसी बहाने मुझे अधोगति में धकेल रही है। जिनके दर्शन, स्पर्श और आलिंगन से मनुष्य का शममय जीवन खत्म हो जाता है, ऐसी नारियों को उपविषमयी नागिनी समझ कर विवेकी पुरुष उनका त्याग करे।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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