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________________ अब्रह्मचर्यसेवन का फल तथा ब्रह्मचर्य के लौकिक पारलौकिक गुण २२३ महासत्वशाली सुदर्शन को बहुत हैरान किया, लेकिन वह तो शुभध्यान के योग से अपूर्वकरण की स्थिति में पहुंच गए । क्रमशः क्षपकश्रेणि पर चढ़ते हुए वहीं उन्हें उज्ज्वल केवलज्ञान प्राप्त हो गया । तत्काल देवों और असुरों ने वहाँ केवलज्ञान महोत्सव मनाया। भवसागर में पड़े हुए जीवों के उद्धारक केवलज्ञानी सुदर्शनमुनि ने धर्मदेशना दी। 'महापुरुषों का अभ्युदय जनता के अभ्युदय के लिए होता है।' उनकी धर्मदेशना से सिर्फ दूसरे जीव ही नहीं, देवदत्ता, पण्डिता और व्यन्तरी ( अभया ) को भी प्रतिबोध हुआ । स्त्रियों के निकट रहने पर भी जिनकी आत्मा दूषित नहीं हुई, ऐसे थे सुदर्शनमुनि ! अपनी शुभधर्मदेशना से अनेक जीवों को प्रतिबोध दे कर उन्होंने क्रमश परमपद प्राप्त किया। जिनेन्द्र धर्मशासन को पा कर तदनुसार आराधना और शासनप्रीति रखने वाले व्यक्ति के लिए मुक्तिपद प्राप्त करना कठिन नहीं है। यह है सुदर्शनमुनि की कथा का हार्द ! धर्मकार्य का अधिकारी केवल पुरुष ही नहीं है, स्त्रियों का भी पूरा अधिकार है। क्योंकि तीर्थंकरों के चातुर्वण्यं श्रमणसंघ में साध्वी और श्राविका को भी स्थान है, वे भी संघ की अंग मानी गई है । इस कारण जैसे गृहस्थ पुरुष के लिए परस्त्रीसेवनवजित है, वैसे ही गृहस्थ स्त्रियों के लिए भी परपुरुषसेवन का निषेध है । अतः जैसे सीता ने रावण का त्याग किया था, वैसे ही स्त्री को पति के अतिरिक्त तमाम परपुरुषों का त्याग करना चाहिए । अब स्त्री या पुरुष के दूसरे पुरुष या दूसरी स्त्री में आसक्त होने का फल बताते हैंनपुंसकत्वं तिर्यक्त्वं दौर्भाग्यं च भवे भवे । भवेन्नराणां स्त्रीणां चान्यकान्तासक्तचेतसाम् ॥ १०३॥ अर्थ जो स्त्रियाँ परपुरुष में आसक्त होती हैं, तथा जो पुरुष परस्त्री में आसक्त होते हैं, उन स्त्रियों या पुरुषों को जन्म-जन्मान्तर में नपुंसकता, तिर्यक्त्व (पशुपक्षीयोन) और दौर्भाग्यत्व प्राप्त होते हैं । अब्रह्मचर्यं को निन्दित बता कर अब ब्रह्मचर्य के इहलौकिक गुण बताते हैं प्राणभूतं चरित्रस्य परब्रमैककारणम् । समाचरन् ब्रह्मचर्यं पूजितैरपि पूज्यते ॥ १०४॥ अर्थ देशविरति या सर्वविरति चारित्र के प्राणभूत और परब्रह्म (परमात्मा की ) प्राप्ति (मुक्ति) के एकमात्र ( असाधारण, कारण, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला मनुष्य सिर्फ सामान्य मनुष्यों द्वारा ही नहीं, सुर, असुर और राजाओं (पूजितों) द्वारा भी पूजा जाता है । अब ब्रह्मचर्य के पारलौकिक गुण बताते हैं चिरायुषः सुसंस्थाना ना नराः । तेजस्विनो महावीर्या भवेयुर्ब्रह्मचर्यतः ॥ १०५ ॥ अर्थ ब्रह्मचर्य के प्रताप से मनुष्य अनुत्तरोपपातिक देवादि स्थानों में उत्पन्न होने से बीर्घायु, समचतुरस्त्र संस्थान (डिलडोल) वाले, मजबूत हड्डियों से युक्त वा ऋषमनाराच
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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