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________________ २१२ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश सुग्रीव आदि के साथ श्रीराम विमान में बैठ कर लंका पहुंचे। वहां हंसद्वीप में अपनी सेना का पड़ाव डाला और लंकानगरी को एक छोटे-से मार्ग के समान सेना ने घेर लिया। विभीषण ने रावण की राजसभा में पहुंच कर प्रणाम करके रावण से निवेदन किया-"बड़े भाई ! यद्यपि मैं आपसे छोटा हूं । आपको कुछ कहना मेरे लिए उचित नहीं है ; तथापि नगरी में फैली हुई एक बात देख कर मुझे हितैषी के नाते कुछ कहने को बाध्य होना पड़ा है। आशा है, आप मेरी बात अवश्य मानेंगे। हमारी नगरी में श्रीराम आये हैं, और वे केवल अपनी सीता वापिस लौटा देने की मांग आपसे कर रहे हैं । आप इस पर दीर्घदृष्टि से विचारें और मेरी नम्र राय में तो सीता उन्हें ससम्मान सौंप दें, जिससे धर्महानि न हो, लोक में अपकीर्ति भी न हो।" रावण ने सुनते ही रोषपूर्वक कहा-"अरे विभीषण ! मालूम होना है तू उससे डर गया है ; तभी तो कायर पुरुष की तरह मुझे उपदेश दे रहा है !" तब विभीषण ने कहा -"बड़े भाई ! राम और लक्ष्मण की बात तो एक ओर रही, उनके केवल एक सैनिक-हनुमान ने क्या नहीं कर दिया ? क्या आपने नही देखा-सुना ?" "रावण बोला-"तू हमारे विपक्षी शत्र में मिला हुआ दीखता है, तभी ऐसी बहकी-बहकी बातें करता है । तू नालायक है, निकल जा यहां से ।' इस प्रकार अपमानित करके विभीषण को निकाल दिया। अत: विभीषण श्री राम के पास पहुंचा। श्रीराम ने उसे लंका का राज्य देने का वचन दिया । क्योंकि 'महा पुरुष औचित्य का स्वीकार करने में कभी नहीं हिचकिचाते ।' कांस्यताल के साथ कांस्यताल टकराता है, वैसे ही लंका से बाहर निकल कर श्री राम की और रावण की सेना प्रकट रूप से परस्पर टकराने लगी। विजयलक्ष्मी भी साहकार और कर्जदार दोनों की लक्ष्मी के समान कभी इधर तो कभी उधर दोनों पक्ष की प्राण होमने वाली सेनाओं में जाने-आने लगी। बाद में राम की 5 संज्ञा से आज्ञा प्राप्त करके एक के बाद एक हनुमान आदि सुभट उसी तरह महासमररूपी समुद्र में उसी तरह शत्रुसेना में अवगाहन करने लगे, जैसे समुदमंथन के समय देवों ने समुद्र में अवगाहन किया था। इधर दुर्दान्त हाथियों के समान चारों ओर फैले हुए राम के पराक्रमी एव दुर्दमनीय सुभटों ने कई राक्षमों को मार गिराया ; कइयों को पकड़ कर कैद कर लिया, कितने ही सैनिकों को भगा दिये । यह बुरी खबर सुन कर जलते हुए अंगारे के समान क्रुद्ध हो कर कुम्भकर्ण और अहकारी मेघनाद ने युद्धभूमि में प्रवेश किया। प्रलयकालीन तूफान और आग के समान दोनों सुभट युद्ध में कूद पड़े। राम की सेना के लिए यह असह्य था। सुग्रीव मे रोषवश एक पर्वत को शिला के समान उठा कर कुम्भकर्ण पर फेंका ; कुम्भकर्ण ने भी अपनी गदा से उसे चूर-चूर कर डाला । फिर गदा के प्रहार से सुग्रीव को नीचे पटक कर अपनी कांख में दबाया और उसे ले कर कुम्भकर्ण लंका की ओर चला । इसे देख कर मेघ के समान गर्जना करने वाला मेघनाद भी हर्षित हुआ । और तीक्ष्ण वाणवर्षा से वानरदीप की सेना घायल कर दी। श्री राम ने आंखें लाल करके कुम्भकर्ण को और लक्ष्मण ने मेघनाद को ललकारा -' ठहरो, ठहरो, अभी तुम्हें मजा चखाते हैं। सुग्रीव भी तुरंत जोश में आ कर वहां कूद पड़ा । 'पारा कब तक मुट्ठी में पकड़े हए रखा जा सकता है। अतः कुम्भकर्ण वहां से लौट कर राम के साथ भिड़ पड़ा। दूसरी ओर जगत् को अन्ध करने वाला मेघनाद भी फुर्ती से लक्ष्मण के साथ भिड़ गया। पूर्व और पश्चिम के समुद्र के समान राम और कुम्भकर्ण परस्पर युद्ध के दांवपेच लगा रहे थे, उधर उत्तरी और दक्षिणी समुद्र के समान रावणपुत्र मेघनाद और लक्ष्मण भी अपने-अपने दांवपेच लगाने लगे । थोड़ी ही देर में राक्षसों पर काबू
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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