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________________ चन्द्रणखा द्वारा राम-लक्ष्मण से की गई रतिक्रीड़ा-प्रार्थना का अस्वीकार २०५ पुत्र को स्थापित करने के लिए उन्होंने राम और लक्ष्मण को बुलाया। तभी भरत की माता कैकयी ने था कर सत्यप्रतिज्ञ राजा दशरथ से धीरगम्भीर वाणी से उच्चारण करते हुए दो वरदान मांगे । तत्काल राजा दशरथ ने एक वरदान के रूप में भरत को राजगद्दी सौंपी और दूसरे वरदान के रूप में सीतासहित राम और लक्ष्मण को चौदह वर्ष के वनवास की मांग पर उन्हें वनवास की आज्ञा दी, जिस पर सीतासहित राम और लक्ष्मण ने तत्काल वनप्रस्थान कर दिया और दण्डकारण्य में जा कर पचवटी के आश्रम में निवास किया। उस समय दो चारणमुनि विचरण करते-करते वहाँ आए। राम-लक्ष्मण ने श्रद्धापूर्वक उन्हें नमस्कार किया। श्रद्धालु सीता ने अतिथिरूप दोनों मुनियों को शुद्धभिक्षा दे कर आहारदान का लाभ लिया। उसी समय देवों ने सुगन्धित-जल की वृष्टि की। उस सुगन्ध से वहां जटायु नाम का एक गिद्धराज आ गया । दोनों चारणमुनियो ने वहाँ धर्मोपदेश दिया। इससे उस पक्षी को भी प्रतिबोध हुआ। उसे जातिम्मरणज्ञान हुआ, अतः पूर्वजन्म के किसी सम्बन्ध के कारण वह हमेशा सीता के पास ही रहने लगा। एक दिन राम आश्रम पर ही थे। लक्ष्मण फलादि लाने के लिए बाहर वन में गया, वहाँ लक्ष्मण ने एक तलवार पड़ी देखी; कुतूहलवश उसने उठा ली और उसकी तीक्ष्णता की परीक्षा करन क लिए उसने पास ही पड़े हुए बांसों के ढेर में प्रहार किया। उमके बाद बांसों के ढेर के बीच मे बैठ हुए किसी पुरुष का मस्तककमल कमलनाल के समान कट कर गिरा हुआ देखा। देखते ही लक्ष्मण को बहुत पश्चात्ताप हुआ-"हाय, मैंने बिना ही युद्ध किये आज अकारण ही इस निःशस्त्र पुरुष को मार दिया !" इस अकार्य के लिए अपनी आत्मा को धिक्कारता हुआ एवं आत्मनिन्दा करता हुआ लक्ष्मण अपने बड़े भाई रामचन्द्र के पास आया। उमने सारी घटित घटना उन्हें सुनाई । उसे सुन कर रामचन्द्र ने कहा-"भया! यह सूर्यहास नामक तलवार है। इसकी साधना करने वाले को तुमने मार दि इसका कोई न कोई उत्तरसाधक वहाँ पर जरूर होना चाहिए, इतने मे ही रावण की बहन, खर की पत्नी चन्द्रणखा वहां पर पहुंची, जहां उसका पुत्र मरा पड़ा था। अपने मृत पुत्र को देखते ही वह जोर. जोर से चिल्ला कर रोने लगी -- हाय ! मेरे पुत्र शम्बूक I तू कहाँ है ? मुझे छोड़ कर तू कैसे चला गया ?" उसने अपने पुत्र को मारने वाले का पता लगाने के लिए इधर-उधर दृष्टि दौड़ाई, पर वहां कोई नजर नहीं आया। तभी उसकी नजर लक्ष्मण के पैरों की मनोहर पंक्ति पर पड़ी। उसने मन ही मन सोचा-"हो न हो, इन्ही पदचिह्नो वाले पुरुष ने मेरे पुत्र को मारा है।" यह निश्चय करके वह उन चरणचिह्नों का अनुसरण करती हुई चल पड़ी। थोड़ी ही दूर गई होगी कि उसने एक पेड़ के नीचे नयन मनोहारी राम को सीता और लक्ष्मण के आगे बैठे हुए देखा। श्रीराम को देखते ही उनके रूप पर मोहित हो कर वह कामक्रीड़ातुर हो गई । "शोक की अधिकता के समय कामिनियों में काम की अभिलाषा कुछ अजब ही होती है।'' उसने अपना रूप अत्यन्त मनोहर बना लिया और राम से अपने साथ रतिक्रीड़ा करने की प्रार्थना की।" उसकी निकृष्ट प्रार्थना पर मुस्कराते हुए राम ने कहा- "मेरे तो एक पत्नी है, तुम लक्ष्मण की सेवा करो।" अतः वह लक्ष्मण के पास गई और उसके सामने भी इसी तरह की प्रार्थना करने लगी । लक्ष्मण ने उत्तर दिया - -"तुम जैसी आर्यनारी के लिए ऐसी प्रार्थना शोभा नहीं देती । मैं तुम्हारी बात को कदापि स्वीकार नहीं कर सकता।" प्राधनाभंग और पुत्रवध से अत्यन्त कुपित हो कर वह सीधी अपने पति खर के पास पहुंची ; और उससे कहा-'मेरे पुत्र को लक्ष्मण ने मार डाला है। उसका उससे अवश्य बदला लेना
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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