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________________ १९२ योगशास्त्र: द्वितीय प्रकाश अगर मैं सारा का सारा उपदेश रुचिपूर्वक सुनता तो कितना लाम मिलता ?' इस प्रकार मन ही मन शुभ चिन्तन करता हुआ रोहिणेय सीधा भगवान महावीर के पास पहुंचा और उनके चरणकमलों में नमस्कार करके उसने प्रार्थना की-"भगवन् ! भयंकर आपत्तिरूपी जलचरजन्तुओं से भरे हुए इस संसारसमुद्र में आपकी योजनगामिनी वाणी महायानपात्र (जहाज) का काम करती है। अपने आपको प्रामाणिक पुरुष मानने वाले मेरे अनार्य पिता ने मुझे अब तक आपके वचन सुनने का निषेध किया था, इस कारण मैं अभागा आप जगद्गुरु की वाणी से वचित रहा। त्रिलोकीनाथ ! सचमुच, वे पुरुष धन्य है, जो श्रद्धापूर्वक अपने कर्णाजलिपुट से आपके वचनामृत का सदा पान करते हैं । मैं अभागा कैसा पारी रहा कि आपके वचन सुनने की इच्छा न होने के कारण कानों में उगलियाँ डाल कर बंद करके इस स्थान को पार करता था। एक बार अनिच्छा से भी मैंने कुछ वचन आपके सुने, उन मंत्राक्षरों के प्रभाव से ही मैं राजराक्षस के चंगुल से बच सका । नाथ ! जिस प्रकार आपने मरते हुए की रक्षा की, उसी प्रकार आप अब संसारसागर के भंवरजाल में डूबते हुए मुझे बचाइए।" अनुकम्पापरायण प्रभु ने उसकी नम्र प्रार्थना सुन कर उसे निर्वाणपददाता निर्मल साधुधर्म का उपदेश दिया। उससे प्रतिबोध पा कर रोहिणेय चोर ने नमस्कार करके प्रभु से सविनय पूछा"भगवन् ! मैं मुनिधर्म के योग्य हूं या नहीं ? कृपा करके फरमाइए।" भगवान ने कहा-'रोहिणेय ! तुम योग्य हो !" यह सुन कर रोहिणेय ने कहा-'प्रभो ! तब तो मैं अवश्य ही महाव्रत अंगीकार करूंगा।" बीच में ही राजा श्रेणिक ने कहा-"मुझे इसे कुछ कहना है ।" यों कह कर चोर से कहा--- "रोहिणेय ! अब तो तुम प्रभुचरणों में दीक्षित होने जा रहे हो, इसलिए मैं तुम्हें अपने कृत दुष्कृत्यों के लिए क्षमा करता है । परन्तु तुम निश्चिन्त और निःशक हो कर अपनी सारी आत्मकथा ज्यों की त्यों कह दो।" यह सुन कर लोहख़र-पुत्र रोहिणेय ने कहा-'राजन् ! मेरे विषय में लोगों से आपने जो सुना है, वही मैं रोहिणेय चोर ह । मैं निःशक हो कर नगर में चोरी करता था। जैसे नौका के जरिये बदी पार की जाती है, वैसे ही प्रभु के एक अमृत-वचनरूपी नौका से मैंने अभयकुमारजी की बुद्धि से उत्पन्न की हुई संकट को नदी पार कर ली । इस नगर में मैंने इतनी चोरियां की हैं, कि दूसरा कोई चोर मेरी छानबीन भी नहीं कर सकता । आप मेरे साथ किसी विश्वस्त व्यक्ति को भेजिए, नाकि मैं चुराई हुई सारी वस्तुएं उसे बता दूं और सौंप दूं। तत्पश्चात् दीक्षा ग्रहण करके अपना जन्म सफल करूं । मैं आप सबसे अपने अपराधों के लिए ममा चाहता हूं।" श्रेणिक राजा की आज्ञा से अभयकुमार तथा कुछ प्रतिष्ठित नागरिक कुतूहलवश रोहिणेय के साथ गये। उसने पर्वत, नदी, वन, वृक्ष, श्मशान आदि जिनजिन स्थानों में धन गाड़ा था, वह सब खोद कर निकाला और अभयकुमार को सौंप दिया । अभयकुमार ने भी जिस-जिस व्यक्ति का वह धन था, उसे दे दिया। निर्लोभी और नीतिमान मंत्रियों की और कोई दुर्नीति नहीं होती। उसके बाद श्रद्धालु रोहिणेय अपने सम्बन्धियों के पास पहुंचा । सम्बन्धियों को त्याग, वैराग्य और परमार्थ की बातें कह कर उसने प्रतिबोध दिया और फिर स्वयं भगवान के चरणों में पहुंचा। घणिक राजा ने खूब धूमधाम से रोहिणेय का दीक्षा-महोत्सव किया। ठीक समय पर शुभमुहूर्त में उसने श्री महावीर प्रभु से भागवती दीक्षा अंगीकार की । दीक्षा लेने के बाद कर्मक्षय करने के लिए एक उपवास से ले कर छह महीने तक के उपवास आदि निर्मल तप रोहिणेय मुनि ने किये । तपस्या करते-करते जा शरीर कृश और अशक्त हो गया, तब भाव से संल्लेखना की आराधना करके श्री वीरप्रभु की आज्ञा ले कर विपुलाचल पर्वत पर पादपोगम नामक अनशन किया। अन्तिम समय में शुभध्यानपूर्वक पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए रोहिणेय महामुनि ने समाधिमरणपूर्वक शरीर छोड़ा और देवलोक में पहुंचे । इसी
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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