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________________ १६४ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश अब मृषावाद से परलोक में होने वाला फल बताते हैं निगोदेष्वथ तिर्यक्ष तथा नरकावासः । उत्पद्यन्ते मृषावा प्रसादन शरीरिणः ॥५९॥ अर्थ असत्य-कथन के प्रताप से प्राणी दूसरे जन्मों में अनन्तकायिक निगोद जीवयोनियों में, तिर्यंचयोनियों में, अथवा नरकावासों में उत्पन्न होते हैं। अब असत्य वचन का त्याग करने वाले कालिकाचार्य एवं अमत्य दोलने नाले वमुराजा का दृष्टान्त दे कर असत्य से विरति की प्रेरणा देते हैं ब्र याद् भियोपरोधाद वा नासत्यं कालिकार्यवत् । यस्तु ब्रूते स नरकं प्रयाति वसुराजवत् ॥६॥ अर्थ कालिकाचार्य कतई असत्य न बोले, उसी तरह मृत्यु या जबर्दस्त आदि के भय से अथवा किसी के अनुरोध या लिहाज-मुलाहिजे में आ कर कतई असत्य न बोले। परन्तु उपर्युक्त कारणों के वशीभूत हो कर जो असत्य बोलता है, वह वसुराजा की तरह नरक में जाता है। दोनों दृष्टान्त क्रमशः इस प्रकार हैं सत्य पर दृढ़ कालिकाचार्य प्राचीनकाल में पृथ्वीरमणी के मुकुटमणि के समान 'तुरमणी नाम की एक नगरी थी, जहां जिनशत्र नामक राजा राज्य करता था । इमी नगरी में रुद्रा नाम की एक ब्राह्मणी रहती थी। उसके एक पुत्र था. जिसका नाम दन था। दन अन्यन्त उच्छृ खल, जुआरी और शगवी था। इन्हीं दुर्व्यसनों में मस्त रहने में वह आनन्द मानना था। स्वच्छन्दतापूर्वक अपनी इच्छानुसार बेरोकटोक प्रवृति करने के उद्देश्य से वह राजा की सेवा में रहने लगा । गजा ने भी छाया के समान साथ रहने वाले अपने पारिपाश्विक सहयोगियों में उसे मुखिया बना दिया। बढ़ती हुई जहरीली बेल को जरा-सा पेड़ का सहारा मिल जाय तो वह आगे से आगे बढ़ती या ऊर फैलती ही जाती है।' यही हाल दत्त का हुआ । इसने किमी न किमी युक्ति से भेदनीति से प्रजा को भड़का कर राजा को देश निकाला दिलवा दिया । और 'पापात्मा और कवूनर दोनों अपने आश्रय को उखाड़ते ही हैं ;' राजा को इस प्रकार निर्वासित करके वह पापात्मा दत्त स्वय राजगद्दी पर बैठ गया। नीत्र व्यक्ति को पैर के अग्रभाग का जरा-सा सहारा देने पर वह धीरे-धीरे सिर तक चढ़ जाता है। अब तो दत्त धर्मबुद्धि से पशुवधपूर्वक महायज्ञ करने लगा, मानो पापरूपी धुंए के सारे विश्व को मलिन कर रहा हो। एक बार मूर्तिमान संयमस्वरूप दत्त के मामा श्रीकालिकाचार्य विचरण करते हुए उग नगरी में पधारे। मिथ्यात्व से मूह बने हुए गजा दत्त की आचार्य के पास जाने की कतई इच्छा नहीं थी, किन्तु माता के अत्यन्त दबाव से वह गृहस्थपक्षीय मामा (आचार्य) के पास अनमने भाव से पहुंचा । वहाँ जाते ही शराब के नशे में चूर उन्मत्त के समान उद्धतता-पूर्वक उसने आचार्य से पूछा-'आचार्यजी !
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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