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________________ हिसोपदेशक व्यक्ति और तथाकथित उपदेश की निन्दा व्याख्या दयालु व्यक्ति कभी हिसा का उपदेश नहीं देते या हिंसा के उपदेश से परिपूर्ण शास्त्रों की रचना नहीं करते। मगर बड़ा अफसोस है कि निर्दय और लोभान्ध हिसापरक शास्त्रों के उपदेष्टा, मनु मादि मांस खाने के लोभ में अंधे बने हुए भोलेभाले श्रद्धालु भद्रजनों को (बहका कर या उलटे-सीधे समझा कर) नरक के गर्त में डाल देते हैं ।" यहां उन उपदेशकों को लोभ में अंधे क्यों कहा गया ? इसके उत्तर में कहते हैं वे लोग सहज विवेकरूपी पवित्र चक्ष या विवेकी के संसर्गरूपी नेत्र से रहित हैं। कहा भी है-'एक तो, पवित्र चक्ष सहज विवेक है, दूसरा चक्ष है-उन विवेकवान व्यक्तियों के साथ सहवास (सत्संग) करना । संसार में जिसके पास ये दोनों चक्ष नहीं है, वह आंखें होते हुए भी वास्तव में अन्धा है । अगर ऐसा व्यक्ति विपरीत मार्ग में प्रवृत्त होता है तो इसमें दोप किसका है ? उसी का ही तो है !' चतुर बुद्धिशाली व्यक्तियों को कार्याकार्य के विवेक करने में ऐसे ठगों की मीठी-मीठी बातों के चक्कर में आ कर विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। जिसने हिंसापरक शास्त्र रचा है, उसका उल्लेख करके आगे उसका बखिया उधेड़ते हैं यज्ञार्थ पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञ वधोऽवधः ॥३३॥ अर्थ ब्रह्माजी ने यज्ञ के लिए स्वयमेव पशुओं को बनाया है। यज्ञ इस सारे चराचर विश्व के कल्याण के लिए है । इसलिए यज्ञ में होने वाली हिंसा हिंसा नहीं होती। यानी वह हिसा पाप का कारण नहीं होती। व्याख्या यह पूछे जाने पर कि 'यज में होने वाली हिंसा में कोई दोप क्यों नहीं है ? उनकी ओर से यह उत्तर दिया जाता है-जिस जीव की हिंसा की जाती है, उसके प्राणवियोग से बड़ा उपकार होता है, अथवा पुत्र, स्त्री, धन आदि के वियोग से महान् उपकार होता है. यज्ञीय हिंसा से मरने वालों के लिए वह हिंसा इसलिए महोपकारिणी होती है कि अनर्थ से उत्पन्न हिंसा से, दुष्कृत से होने वाली हिंसा से तथा नरकादि फलविपाक प्राप्त कराने वाली हिंमा से यह हिसा भिन्न है। इस हिंसा से मरने वाले नरकादि फल नहीं पाते । इसलिए यह हिंसा अपकारक नहीं, उपकारक है। इसी के समर्थन में आगे कहते हैं औषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा । यज्ञार्थ निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युिित पुनः ॥३४॥ अर्थ गम आदि औषधियों, बकरा आदि पशुओं, यूप आदि वृक्षों, बैल, घोड़ा, गाय मादि तिर्यञ्चों, कपिजल, चिड़िया आदि पलियों का यज्ञ के लिए जब विनाश किया जाता है, तो ना हो (मर) कर फिर देव, गन्धर्व भादि उच्च योनियां प्राप्त करते हैं , अथवा उत्तरकुरु आदि में दीर्घायुष्य प्राप्त करता है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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