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________________ युवक ब्रह्मदत्तकुमार द्वारा माता का बोध १२७ है और सभी चर जाता है । उसी प्रकार तुच्छबुद्धिवाला दीर्घ भी राज्यलक्ष्मी को अरक्षित समझ कर उसका बेखटके मनमाना उपभोग करने लगा । दुर्जन जैसे दीर्घकाल के सहवास से दूसरे के छिद्र को ढूंढ़ निकालता है, वैसे ही दुर्बुद्धि दोघं ने चिरकाल से गुप्त धनभडाा हूँढ निकाला। पूर्वपरिचय के कारण वह ब्रह्मराजा के अत.पुर में भी बेरोक टोक घूमने लगा। सचमुच, आधिपत्य मनुष्य से प्रायः अन्धकार्य करा देता है। अतः दीर्घ अब चुलनी देवी के माय एकान्त में अकेला और प्रेमभरे वचनों से विनोद और हास्य करने लगा । यह गुप्तमं णा कामवाणों से उस बीधने वाली थी। इस प्रकार दीर्घराजा अपने कर्तृव्य, ब्रह्म राजा के उपकार और लोक मर्यादा की अवगणना करके चूलनीरानी में अत्यन्त आसक्त हो गया । "सचमुच, इन्द्रियों को वश करना अतिकठिन हैं। चूलनी गनी ने भी ब्रह्मराजा के प्रति पतिभक्ति का तथा पति के मित्र होने के नाते दीघं राजा के प्रति मित्रस्नेह का त्याग कर दिया। वास्तव में 'कामदेव सर्वविनाशक होता है।' इच्छानुसार सुख-विलाम करते हुए लम्बा अर्मा भी मुहूर्त के समान बीत गया । ब्रह्म राजा के अभिन्न हस्य मन्त्री धनु को जब दीर्घराजा और चूलनीरानी के गुप्त दुराचार का पता लगा तो वह विचार में पड़ गया कि चूलनी देवी स्वभाव से ही पनिव्रतधर्मविरुद्ध दुराचार का सेवन कर रही है । वास्तव में 'सती स्त्रियां विरली ही होती हैं ।' जिसे दीर्घराजा को राज्य, कोष और अन्तःपुर की रक्षा करने और संभालने का काम विश्वासपूर्वक मौंपा था; वही दीर्घराजा आज विश्वास घात करके ब्रह्मराजा की रानी के माय स्वच्छन्द हो कर रगरेलियां कर रहा है। इसके लिए आज कुछ भी अकार्य नहीं रहा । सम्भव है, वह अब कुमार का भी कुछ अनिष्ट कर बैठे। दुर्जन मनुष्य बिलाव की तरह पोषण करने वाले को भी अपना नहीं समझता।' यों विचार करके उसने अपने पुत्र वरधनु को आदेश दिया-'बेटा ! तू ब्रह्मदत्तकुमार की सेवा में रहना और कोई गलत बात या नया समाचार हो तो मुझे सूचित करते रहना।" मंत्रीपुत्र ने जब ब्रह्मदत्त कुमार को अन्तःपुर में हो रही अघटित घटना की बात सुनाई तो उसे सुन कर ब्रह्मदत्त भी मतवाले हाथी की तरह धीरे-धीरे क्रोध से मल्लाने लगा । माता के दुश्चरित्र की बात जब असह्य हो उठी तो एक दिन ब्रह्मदत्त एक कोए और कोयल को साथ ले कर अंतःपुर में पहुंचा । अपनी माता और दीर्घराज को उद्देश्य करके वह इस प्रकार कहने लगा-'वर्णसंकरता फैलाने वाले इन दोनों तथा और भी ऐसे कोई हों तो वे मार डालने के लायक हैं। मैं ऐसों को अवश्य ही दंड दूंगा । यह बात सुन कर दीर्घ राजा ने चूलनी से कहा .-'सुन ली न तुम्हारे बेटे की बात ? वह मुझे कौआ और तुम्हें कोयल बता रहा है और मौका मिलते ही वह हम दोनों को अवश्य ही कैदी बनाएगा। इस पर रानी ने कहा-'बालक के कथन पर तुम्हें जरा भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । एक बार भद्र हथिनी के साथ सूअर को अन्त.पुर में ले जा कर दीर्घराजा और माता को प्रेरणा देने के बहाने उन दोनों पशुओं को पहले की तरह उपालम्भ देते हुए फटकारने लगा। यह सुनते ही दीर्घ राजा के कान खड़े हो गये । उसने फिर रानी से कहा --'देखो न, फिर यह बालक हमें लक्ष्य करके कह रहा है।" इस पर चूलनी रानी ने उससे कहा-अभी वह, नादान बच्चा है, चाहे जो कहे, हमें उसके कहने पर ध्यान नहीं देना चाहिए।" एक दिन हंसनी के साथ बगुले को बांध कर ब्रह्मदत्त अन्तःपुर में ले गया और दोनों को लक्ष्य करके सुनाने लगा-'खबरदार' ! जैसे इस हंसनी के साथ बगुला क्रीड़ा करता है, वैसे किसी ने किया तो मैं जरा भी सहन नहीं करूंगा।" तब दीर्घ ने रानी से कहा-"देवी ! देख फिर यह तेरा पुत्र धुमा उगलती हुई आग की तरह रोषाग्नि से भरी वाणी उगल रहा है। यह ज्यों-ज्यों उम्र में
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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