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________________ १२६ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश पास नहीं टिकता, उसी प्रकार सनत्कुमार और मुनि के से अलग हो कर दुष्कर्म चाण्डाल मृतवत् जीवनयापन करने वाले नमुचि को नगर और देश से निष्कासित कर दिया । सनत्कुमार चक्रवर्ती की मुख्य पटरानी सुनन्दा भावभक्ति से प्रेरित हो कर अपनी ६४ हजार सौतों को साथ ले कर दोनों मुनिवरों को वंदन करने गई । सम्भूति मुनि को वंदन करते समय वह श्रेष्ठ नारी उनके चरणकमलों से अपने बालों को स्पर्श कराती हुई-मी उनके चरणों में झुकी, उस समय ऐसा प्रतीत होता था, मानो वह पृथ्वी को चन्द्रमयी बना रही हो । उग स्त्रीरत्न के सुकोमल बालों का स्पर्श होते ही संभूतिमुनि को रोमांच हो उठा । सच है, 'कामदेव सदा छिद्र ढूंढता रहता है।' जब पटरानी ने उनकी आज्ञा ले कर, अन्तःपुर-सहित जाने की इच्छा प्रगट की, तब राग से पराजित संभूतिमुनि ने मन ही मन इस प्रकार का निदान (दु.संकल्प) क्रिया -~-यदि मेरे दुष्करतप का कोई फल प्राप्त हो तो यही हो कि आगामी जन्म में मैं ऐसी स्त्रीरत्न का पति बनौं। उस समय चित्रमुनि ने उन्हें रोकते हुए कहा"भाई ! मोक्षफलदायक तप से तुम ऐसे निकृष्ट फल की इच्छा क्यों करते हो? मस्तक में धारण करने योग्य रत्न को पादपीठ में क्यों लगा रहे हो ? मोहवश किये हुए निदान (नियाणे) का अब भी त्याग कर दो। तुम जैसे महामुनि के द्वारा ऐसा विचार करना उचित प्रतीत नहीं होता। इसी समय इसके लिये 'मिच्छामि दुक्कर' (मेरा यह दुष्कृत मिथ्या हो) कह दो। इस प्रकार चित्रमनि के रोकने कह दो। इस प्रकार चित्रमुनि के रोकने पर भी संभूतिमुनि ने नियाणे का त्याग नहीं किया। सचमुच, विषयेच्छा अतिबलवती होती है।' अनशन की भली-भांति विधिपूर्वक आराधना करके दोनों मुनि आयुष्य पूर्ण कर सोधर्म नामक सुन्दर विमान में देवरूप में उप्पन्न हुए। चित्र के जीव ने प्रथम देवलोक से च्यवन कर पुरिमताल नामक नगर में एक सेठ के यहां पुत्र रूप में जन्म लिया । संभूति का जीव भी देवलोक से च्यव कर कांपिल्यनगर में ब्रह्मराजा की भार्या चुलनीदेवी की कुक्षि में आया । माता ने चौदह महाम्बप्न देखे । शुभतर वैभव सूचक भविष्य जान कर चलनी रानी ने उसी तरह पुत्र को जन्म दिया, जैसे पूर्वदिशा मूर्य को जन्म देती है । आनन्द से ब्रह्म में मग्न ब्रह्मराजा ने पुत्र का नाम ब्रह्माण्ड में प्रसिद्ध ब्रह्मदत्त रखा । जगत् के नेत्रों को आनन्द देता हुआ एवं अनेक कलाओं को ग्रहण करता हआ निमलचन्द्र के समान वह दिनोंदिन बढ़ने लगा । ब्रह्मा के चार मुख के समान ब्रह्मराजा के चार प्रिय मित्र थे, उनमें में एक काशी देश का राजा कटक था, दूसरा हस्तिनापुर का राजा कणेरदत्त था, तीसरा, कोशल का राजा दीर्घ और चौथा चंपा का राजा पुष्पचूलक था। ये पांचों मित्रराजा एक दूसरे के स्नेह-वश एक-एक वर्ष तक बारी-बारी से एक-एक राजा के नगर में नंदनवन और कल्पवृक्ष की तरह साथ-साथ रहते थे । एक बार ब्रह्म राजा के नगर में पांचों राजाओं के एकत्रित रहने की बारी आई । इस कारण शेप चारों राजा वहाँ आए हुए थे । वे सभी वहाँ मस्ती से क्रीड़ा करते हुए अपना अधिकांश समय व्यतीत कर चुके थे। परन्तु इधर जब ब्रह्मदत्त बारह वर्ष का हुआ, तभी अचानक ब्रह्मराजा के मस्तक में अपार वेदना पैदा हो पड़ी, और उसी से पीड़ित हो कर वह मर गया । ब्रह्मराजा की मरणोत्तर क्रिया करने के बाद मूर्त उपाय के समान कटक आदि चारों राजाओं ने मिल कर ठोस ओर आवश्यक मंत्रणा की कि "ब्रह्मदत्त अभी बालक है। जब तक वह वयस्क न हो जाय, तब तक हममें से किसी एक को यहां पहरेदार की तरह राज्यरक्षा के लिए रहना चाहिए।" मित्र-राजाओं को यह बात जंच गई और राज्य की रक्षा के लिये दीर्घराजा को वहां पर नियुक्त किया। शेष तीनों मित्र राजा अपने-अपने स्थान लौट गये। जमे खेत को अरक्षिन देख कर खेत में घुस जाता
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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