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________________ जमदग्नि का रेणुका के साथ पाणिग्रहण और परशुराम का जन्म ११९ लिए तुम्हारे पास आया हूं।" राजा ने कहा - 'मेरी ये सो कन्याएं हैं ; इनमें से जो आपको चाहे, उसे आप ग्रहण कीजिए।" उस तापस ने कन्याओं अन्तःपुर में जा कर राजकुमारियों से कहा-'तुममें से कोन मेरी धर्मपत्नी बनने को तैयार है ?' कन्यों ने इम अप्रत्याशित प्रस्ताव को सुन कर तापस की ओर देखते हुए कहा - 'अरे जटाधारी ! सफेद बाल वाले ! दुर्बल ! भिक्षाजीवी बूढ़े ! तुझे हम जवान कन्याओं से ऐसा कहते हुए शर्म नहीं आती ! यों कहते हुए राजकन्याओं ने उस पर थूका । अतः हवा से जैसे आग भड़क उठती है वैसे ही इस बात में जमदग्नि की क्रोधाग्नि भड़क उठी। उसने अपने तपोबल से से राजकन्याओं को खींचे हुए कमान की तरह कुबड़ी बना दिया। उस समय वहीं आंगन में धूल के ढेर पर क्रीड़ा करती हुई एक कन्या को देख कर तापस ने उसे पास बुला कर कहा-- 'अरी रेणुके ! क्या तू मुझे चाहती है? यों कह कर उमे बीजोरे का फल बताया। उसने भी पाणिग्रहण-सूचक हाथ लम्बा किया। दरिद्र जैसे धन को कस कर पकड़ लेता है वैसे ही तापस ने उक्त बालिका को छाती से पकड़ लिया । अतः राजा ने विधि-पूर्वक गाय दान में दे कर उक्त कन्या को भी साथ में दे दी। राजा को शेष ६६ कन्याओं के साथ साली का स्नेह-पूर्ण रिश्ता होने से तापस ने अपनी तरःशक्ति से उन्हें पहले की तरह पुन: सुन्दर बना दिया। धिक्कार है, मूढ़ों के द्वारा इस प्रकार के तपोव्यय को ! राजकन्या अभी अल्पवयस्क, भोली और सुन्दर थी। अतः तापस उसे अपने आश्रम में ले गया। हिरनी की तरह चचलनयना उस कन्या को तापस ने आश्रम में प्रेम से पालन-पोषण कर बड़ी की । तपस्वी के ये दिन शीघ्र व्यतीत हो गए। कन्या अब कामदेव के क्रीडावन के समान मनोहर यौवन के सिंहद्वार पर पहुंची। पार्वती के साथ जैसे महादेव ने विधिवत् पाणिग्रहण किया था, वैसे ही उस कन्या के साथ जमदग्नि तापस ने अग्नि की माक्षी-पूर्वक विवाह किया। ऋतुमती होने पर ऋपि ने उससे कहा'प्रिये ! मैं तेरे लिये एक चरु मंत्रित करके तैयार कर रहा हं ! यदि तू उसका भक्षण करेगी तो उसके प्रभाव से तुझे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त होगा।' इस पर रेणुका ने अपने पति तापस से कहा'प्रिय ! हस्तिनापुर में मेरी बहन अनन्तवीयं राजा की पत्नी है; उसके लिये भी एक मंत्रसाधित भात्र. चर तैयार कर दीजिए । तापस ने अपनी पत्नी के लिये ब्रह्मचरु तैयार किया और अपनी साली के लिये क्षत्रियपुत्र उत्पन्न करने हेतु एक मंत्रसाधित क्षात्रचरु तैयार किया। जब दोनों चरु मंत्रसाधना से तैयार हो गए तब तापस ने रेणुका को दे दिये । रेणुका ने मोचा कि-'मैं यहां पर इस घोर जंगल में हिरणो के समान अरक्षित बनी हुई हूँ। मेरे कोई क्षत्रियपुत्र हो तो अच्छा ; जो मेरी रक्षा कर सके। यों विचार कर उसने ब्रह्मचरु के बदले क्षात्रचर का भक्षण कर लिया। और ब्रह्मचरु अपनी बहन को दे दिया। समय पर दोनों के पुत्र हुए । रेणुका के पुत्र का नाम 'राम' रखा और उसकी बहन के पुत्र का नाम 'कृतवीर्य' रखा गया। पिता ऋषि होने पर भी जल में बडवानल की तरह तापस जमदग्नि के यहां उनका पुत्र 'राम' क्षात्रतेज के साथ क्रमशः बढ़ने लगा। एक दिन आश्रम में एक विद्याधर आया। वह अतिसार-रोग ने पीड़ित होने से आकाशगामी विद्या भूल गया था। राम ने भाई की तरह उसे औषधि आदि देकर उसकी सेवा की। अत: अपनी सेवा के बदले में उसने राम को परशु-सम्बन्धी पारशवी नामक विद्या दी। शरवन में अन्दर जा कर उसने पारशवी विद्या की साधना की। इस कारण बाद में राम परशुराम के नाम से प्रसिद्ध हुआ। एक बार अपनी बहन से मिलने की उत्कंठा से रेणुका पति से पूछ कर हस्तिनापुर चली गई। प्रेमियों के लिए कोई चीज दूर नहीं है। अपनी साली चपलनेत्रा रेणुका को आए देख कर लाड़-प्यार करते हुए अनंतवीयं ने उसके कोमल अंगों पर हाय फिराते-फिराते उसके
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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