SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योगशास्त्र : द्वितीय प्रकाश ने राजा को विचलित करने के लिए रास्ते पर ही नृत्य, गीत आदि का आयोजन किया ; परन्तु वे वहां ठिठके नहीं। जैसे समानगोत्रीय पर दिव्यचक्र का प्रभाव नहीं होता, वैसे ही उनका वह उपाय भी निष्फल हआ। अतः देवों ने अब सिद्धपत्र का रूप बनाया। और उसके सामने आ कर कहा हे महाभाग्यशाली ! अभी तो तू बहुत लम्बी उम्र वाला युवक है । अत तू अपनी इच्छानुसार सुखोपभोग कर । इस यौवनवय में तुझे तप करने की कैसे सूझी? उद्यमी पुरुष भी रात का काम प्रातःकाल नहीं करता। इसलिये हे भाई ! यौवन वय पूर्ण होने के वाद जब शरीर दुर्बल हो जाय और बुढ़ापा आ जाय' तब तप करना।' इस पर राजा ने कहा--'यदि मेरी आयु लम्बी होगी तो मुझे कर्मक्षय करने या पुण्योपार्जन करने का सुन्दर अवसर मिलेगा। जितनी मात्रा में पानी होगा, उसी के अनुसार उननी मात्रा में कमल की नाल भी बढ़ेगी। यौवनवय में इन्द्रियां चंचल होती हैं। अतः इसी उम्र में तप करना पास्तव में तप है। दोनों ओर से भयंकर शस्त्रास्त्रों का प्रहार हो रहा हो, उस युद्ध में जो टिका रह कर जोहर दिखाये, वही वस्तुतः शूरवीर कहलाता है।" जब राजा अपने सत्य से किसी भी उपाय से जरा भी चलायमान नहीं हुआ, तो दोनों देव-"धन्य है-धन्य है', इस प्रकार धन्यवाद देते हुए वहां से तापस जमदग्नि की परीक्षा लेने चल पड़े। तापस के आश्रम में पहुंच कर उन्होंने देखा कि वटवृक्ष की तरह विस्तृत और भूतल को छूती हुई उसकी लम्बी जटाएं हैं, उसके पैर दीमकों के टीलों से ढके हुए थे। उसकी दाढ़ीरूपी लताजाल में देव-माया से उन देवों ने घोंसला बना कर स्वयं चकवे के जोडे के रूप में उसमें घुस गये। फिर चकवे ने चकवी से कहा- 'मैं हिमवान् पर्वत पर जा रहा हूं।' तब चकवी ने कहा – 'तुम वहां जा कर दूसरी चकवी के प्रेम में फंस जाओगे ; वापस नहीं आओगे। इसलिए मैं तुम्हें जाने की अनुमति नही दंगी।' तब चकवा बोला-'प्रिये ! यदि मैं वापम न आऊँ तो मुझे गोहत्या का पाप लगे। इस तरह शपथबद्ध चकवे से चकवी ने कहा-- प्रिय ! यदि इम ऋषि के पाप की सौगन्ध खाओ तो मैं तुम्हें जाने की अनुमति दे सकती हूं। तुम्हारा मार्ग कल्याणकारी बने ।' यह वचन सुनते ही क्रोध से आगबबूला हो कर तापम ने दोनों पक्षियों को दोनों हाथों से पकड़ लिया और उन्हें कहा-मैं इतना दुष्कर तप करता हूँ कि सूर्य के होने से जैसे अन्धकार नहीं रहता, वैसे ही मेरे तप के रहते मेरे पाप कैसे टिक मकते है ? इस पर चकवे ने ऋपि से कहा-'आप क्रोध न करें। सच बात यह है कि आपका तप सफल नहीं है; क्योंकि 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' 'पुत्र के बिना मनुष्य की सुगति नहीं होती; यह श्रुतिवाक्य क्या आपने नहीं सुना ?' पक्षियों की बात यथार्थ मान कर तापस ने विचार किया कि "मैं स्त्री और पुत्र से रहित हूँ, इस कारण मेरा तप भी व्यर्थ ही पानी में बह गया है। तापस को इस प्रकार विचलित देख कर धन्वन्तरीदेव सोचने लगा-'अरे इस तापस ने मुझं बहका दिया था। धिक्कार है, इसको ! इसका संग छोड़ना चाहिए।' यह सोच कर वह भी श्रावक बन गया। 'प्रतीति हो जाने पर किसे विश्वास नहीं होता? अर्थात् सभी को होता है । उसके बाद वे दोनों देव अदृश्य हो गये। इधर जन्मदग्नि तापस वहां से नेमिकोष्ठक नामक नगर में पहुंचा। वहां अनेक कन्याओं का पिता जितशत्र राजा राज्य करता था। महादेवजी जैसे कन्याप्राप्ति के लिए दक्ष-प्रजापति के पास गये थे, वैसे ही वह तापस एक कन्या की प्राप्ति की इच्छा से राजा के पास गया । राजा ने खड़े हो कर उनका सत्कार किया और हाथ जोड़ कर पूछा- "भगवान् ! आप आप किसलिये पधारे हैं ? जो आज्ञा हो, फरमाइये, मैं सेवा करने को तैयार है !" इस पर तापस ने कहा - "मैं एक कन्या की याचना के
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy