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________________ हिंसा करने वालों का जीवन कितना निन्दनीय है ? ११५ प्राण तक दे कर भी उस हिंसाजनित पाप की शुद्धि करता है तो फिर ऐसी हिंसा के त्याग करने के क्लेश से क्या लाभ ? इसके उत्तर में कहते हैं- प्राणी प्राणितलोभेन यो राज्यमपि मुञ्चति । तद्वधोत्थमघं सर्वोवदानेऽपि न शाम्यति ॥ २२॥ अर्थ यह जीव जीने के लोभ से राज्य का भी त्याग कर देता है। उस जीव का वध करने से उत्पन्न हिंसा के पाप का शमन (पाप से छुटकारा) सारी पृथ्वी का दान करने पर भी नहीं हो सकता । व्याख्या मरते हुए जीव को चाहे जितने सोने के पवंत या राज्य दिये जांय, फिर भी वह (जीव ) स्वर्ण आदि वस्तुओं को अनिच्छनीय समझ कर उनको स्वीकार नहीं करता। बल्कि वह एकमात्र जीने की ही अभिलाषा करता है। इसलिए जीवन (जीना) को प्रिय मानने वाले जीवों का वध करने से उत्पन्न हिंसा के पाप का शमन समग्र पृथ्वी का दान कर देने पर भी नहीं होता । श्रुति में भी कहा है – 'समग्र दानों में अभयदान प्रधान है ।' हिसा करने वालों का जीवन कितना निन्दनीय है ? इसे अब चार श्लोकों में बताते हैं वने निरपराधानां, वायु-तोय-तृ ॥शनाम् । निघ्नन् मृगाणां मांसार्थी, विशिष्येत कथं शुनः ॥ २३ ॥ अर्थ वन में रहने वाले, वायु, जल और हरी घास सेवन करने वाले निरपराध, वनचारी हिरणों को मारने वाले में मांसार्थी कुत्त े से अधिक क्या विशेषता है ? व्याख्या वन में निवास करने वाले न कि किसी के स्वामित्व की भूमि पर रहने वाले वनचारी जीव क्या कभी अपराधी हो सकते हैं ? इसीलिये कहते हैं कि वे वनचारी मृग परधनहरण करने, दूसरे के घर में सेंध लगा कर फोड़ने, दूसरे को मारने, लूटने आदि अपराधों से रहित होते हैं। उनके निरपराधी होने के और भी कारण बताते हैं कि वे वायु, जल और घास का सेवन करने वाले होते हैं । और ये तीनों चीजें दूसरे की नहीं होने से इनका भक्षण करने वाले अपराधी नहीं होते । मांसार्थी का अर्थ यहां प्रसंगव मृग के मांस का अर्थी (लोलुप ) समझना चाहिए। मृग कहने से यहां तृण, घास आदि खा कर वन में विचरण करने वाले सभी जीवों का ग्रहण कर लेना चाहिए। इस तरह से निरपराध मृगों का वध करने में तत्पर मृगमांसलोलुप मनुष्य मांस में लुब्ध कुल से किस प्रकार कम समझा जा सकता है ? अर्थात् उसे कुत्ते से भी गया बीता समझना चाहिए । दीर्यमाणः : शेनापि यः स्वांगे हन्त ! दूयते । निर्मन्तून् स कथं न्नन्तय निशितायुधैः ? ॥ २४ ॥ 3
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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