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________________ १०४ योगशास्त्र: द्वितीय प्रकाश (५) आस्तिक्य-आत्मा है, आत्मा को अपनी शुभाशुभ प्रवृनियों के अनुसार फलस्वरूप मिलने वाला देवलोक, नरकगति, परलोक आदि है ; संसार में प्राणियों को विभिन्नता का कारण कर्म है, कर्मफल है, इस प्रकार जो मानता है, वह आस्तिक है उसका भाव (गुण) या कर्म (क्रिया) आस्तिक्य है। अन्यान्य धर्मतत्त्वों का स्वरूप सनने-जानने पर भी जो कभी जिनोक्त धर्मतत्त्व को छोड़ कर दूसरे धर्मतत्त्व को स्वीकार करने की इच्छा नहीं करता, जिनोक्त धर्मतत्त्व पर ही जिसकी दृढ़ श्रद्धा होती है, वही सच्चा आस्तिक है। ऐसे आस्तिक की पहिचान धर्म और सम्यकत्व के प्रत्यक्ष न दिखाई देने (परोम होने) पर भी आस्तिक्य से की जा सकती है। ऐसे आस्तिक्यलक्षणयुक्त सम्यक्त्वी के लिए कहा है"जिनेश्वरों ने जो कहा है, वही सत्य और शंकारहित हैं, ऐसे शुभ परिणामों से युक्त और शंका, कांक्षा मादि दोपों से रहित हो, वह सम्यक्त्वी माना जाता है । कतिपय आचार्यों ने शम आदि सम्यक्त्व के चिह्नों (लिगों) की व्याख्या और ही रूप से वो है । उनके मत से शम का अर्थ है -भलीभांति परीक्षा किये हए वक्ता (प्राप्त) के द्वारा रचित आगमों के तत्त्वों में आग्रह रख कर मिथ्याभिनिवेश का उपशम (शान्त) करना । यह सम्यग्दर्शन का (प्रथम) लक्षण है । संक्षेप में कहें तो, अतत्त्व का त्याग करके तत्त्व (सत्य) को ग्रहण करने वाला ही सम्यग्दर्शनी है । संवेग का अर्थ है-नरकादिगनियों में जन्म-मरण एवं दुःखों के भय से जिन प्रवचनों के अनुसार धर्माचरण करना और उनके प्रति श्रद्धा रखना । सवेगवान सम्यग्दृष्टि आत्मा नग्कों में प्राप्त होने दाली शारीरिक, मानसिक यंत्रणाओं, शीत, उष्ण आदि वेदनाओं तथा वहाँ के क्लिप्टपरिणामी परमाधार्मिक असुरों द्वारा पूर्व वैर का स्मरण करा कर परस्पर अमीम क्लेश की उदीरणा से होने वाली पीड़ाओं, तिर्यञ्चगति में वोझ उठाने की पराधीनता, लकडी, चाबुक आदि में मार माते रहने आदि दु.खों, मनुष्य गति में दरिद्रता, दीर्भाग्य, रोग, चिन्ता आदि नाना विडम्बनाओं के विषय में चिन्तन करके उनमे डर कर उनका निवारण करने और उक्त, दु.खों से गान्ति प्राप्त करने के उपायभून मद्धर्माचरण करते है, तभी उनका संवेगरूप चिह्न दृष्टिगोचर होता है। अथवा सम्यग्दर्शन में उत्माह का वेग उत्तरोत्तर बढ़ते जाना-वर्धमान होना-सम्यक्त्व का संवेगरूप चिह्न है। निर्वेद का अर्थ है-विपयों के प्रति अनाम क्तभाव । जैसे निवेदवान आत्मा विचार करता है- संसार में कठिनता से अन्त आ सकने वाले कामभागों के प्रति जीवो की जो आसक्ति है, वह इस लोक में अनेक उपद्रवरूप फल देने वाली है, परलोक में भी नरक-तिर्यञ्च-मनुष्य-जन्मरूपी अत्यन्त कटु फल देने वाले हैं। इसलिए मे काममोगों में क्या लाभ ? ये अवश्य ही त्याज्य है । इस प्रकार के निर्वद (वंगग्य) से भी आत्मा के सम्यग्दर्शन की अवश्य पहिचान हो जाती है। अनुकम्पा का अर्थ है दूसरे के दुःख को देख कर हृदय में उसके अनुकूल कम्पन होना । उसकी क्रिया दया के रूप में होती है । अनुकम्पावान मोचता है - मंसार में सभी जीव सुख के अभिलाषी है,दुःख से वे दूर भागते हैं, इसलिए मुझे किसी को भी पीड़ा नही देनी चाहिए। उसका जैमा दुःप है, वैमा ही मुझे दुःख है, इस प्रकार की सहानुभूतिरूप अनुकम्पा से मम्यक्त्वी को पहिचान हो जाती है । इसी प्रकार जिनेन्द्र-प्रवचनों में उपदिष्ट अतीन्द्रिय (इन्द्रियपरोक्ष) वस्तु-जीव (आत्मा), कर्म, कर्मफल, परलोक, पुण्य, पाप आदि भाव अवश्य हैं, इस प्रकार का परिणाम हो तो समझा जा सकता है कि इस आत्मा में आस्तिक्य है । इस आस्तिक्य के कारण भी सम्यक्त्वी की पहिचान हो सकती है। इस प्रकार पूर्वोक्त पांच चिह्नीं से किसी आत्मा में सम्यग्दर्शन के होने का निश्चय किया जा सकता है।
SR No.010813
Book TitleYogshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmavijay
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1975
Total Pages635
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size48 MB
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