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________________ वस्तुतः सिद्धनय वे ही हैं जो अपेक्षा-जनित हैं। वैसे लोक व्यवहार से दुनयों का साधन भी किया जाता है; जैसे कुक्कुट का ग्राम में बोलना, यद्यपि कुक्कुट ग्राम के किसी एक प्रदेश विशेष में बोल रहा है तथापि उपचार से कह दिया गया कि कुक्कुट गाँव में बोल रहा है। यह निरपेक्षनय लोक व्यवहार से है, अथवा अन्य उदाहरण-'वृक्ष कपिसंयोगी' कपि किसी वृक्ष को एक शाखा पर बैठा है, पूरे वृक्ष से उसका संयोग नहीं है तथापि कपि वृक्ष पर बैठा है, ऐसा लोक-व्यवहार प्रक्लुप्त व्यवहार है, दुर्नय हैसमर्थ वचन 'समर्थवचनं जल्पं चतुरंग बिदुधाः । पक्ष निर्णय पर्यन्तं फलं मार्ग प्रभावना ॥' -सिद्धि विनिश्चय, (अकलंकदेव) २ स्व पक्ष साधन में समर्थवचन को चतुरंगवाद या जल्प कहते हैं। उसकी अवधि पक्ष निर्णय पर्यन्त है और फल मार्ग प्रभावना है। चतुरंगवाद वाद के चार अंग हैं-वादी, प्रतिवादी, सभ्य और सभापति । यह विवाद चर्चा को एक प्रमख विषय है। वाद का प्रयोजन 'तत्व ज्ञान की प्राप्ति अथवा प्राप्त तत्व ज्ञान की रक्षा' माना गया है । वादी प्रतिवादी आदि अंग चतुष्टय द्वारा निर्णीत होने से वाद को चतुरंग कहा है। इस चतुष्टय में कोई मतभेद नहीं है तथापि साध्य-साधन प्रणाली में मतभेद है, वाद का प्रयोजन निष्कर्ष की प्राप्ति है। यह वाद न्याय-परम्परा तथा जैन-परम्परा में द्विविध विभक्त है। न्याय परम्परा का वाद छल-प्रयोग द्वारा भी अपने प्रतिवादी को परास्त करने की इच्छा रखता है, परन्तु जैन-परम्परा तत्त्व-शोध-निर्णय को मुख्य मानती है अतः विजिगीषा रखते हुए भी न्यायरीति का अनुसरण करना उचित मानती है। वाद का अंतिम परिणाम जय-पराजय है। इस जय अथवा पराजय की स्थिति में भी अहिंसक दृष्टिकोण को ही जैनाचार्य अकलंक देव ने महत्त्व दिया है।
SR No.010812
Book TitleTirthankar Varddhaman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandmuni
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1973
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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